प्रार्थना

प्रार्थना



      वाह प्रभो ! तेरी लीला बड़ी विचित्र है। गुर्दे की पीड़ा से जो अनुभव कराया-वह तेरी दात है। तेरी कृपा और दया का कहां तक धन्यवाद गाऊं-कि जब जब भी कोई विशेष शारीरिक कष्ट हुआ, वह तेरी दात, नई दात मिलने का साधन बनता रहा । अब के भी तेरी दया की दात मिल गई। तू धन्य है, धन्य है । संभवतः इसीलिए पूर्व काल में भक्त दुःख के ग्राहक और इच्छुक बने रहते थे। सुख में तो प्रभु संभवतः कंकरों की दात प्रकृति से दिला देता है और दुःख में अपनी निज-दात (आध्यात्मिक) स्वयं प्रदान करता है। अतएव तेरे भक्त दुःख में कभी नहीं घबराते । उनका मुखमण्डल प्रसन्नता से भरा, अन्दर से उनको सच्ची शान्तिभरे उल्लास की आशा बंधी रहती है। और वे "तेरी इच्छा पूर्ण हो" कहते हैं । तेरी भीतरी व्यवस्था बड़ी विचित्र है-जिसमें किसी की बुद्धि का प्रवेश नहीं, न किसी की बुद्धि काम करती हैशरीर निर्जीव नाड़ियां, मांस के बल-हीन तन्तु-कितना बल रखते हैं ? जब तेरी आज्ञा पाते हैं-ऊपर की वस्तु ऊपर रह जाती है, नीचे की नीचे। कोई औषधो, कोई साधन, युक्ति और ढंग, गिलास लगने और गोली खाने, इंजैक्शन, भाप, विरेचन आदि सब व्यर्थ रह जाते हैं। न कै (वमन) आवे, न विष्ठा । ज्यों औषधि लो-पीड़ा बढ़ती है। और जब तू कृपा करे, तेरी आज्ञा हो जाए-सब जीवनहीन मांसपेशियां, नसें ढीली हो जावें-और रास्ता दे देती हैं। ऐसे रोगों में ही मनुष्य अपने आपको प्रकट करता है कि वह क्या है ? साधक की तो मुकाबले की परीक्षा सी होती है। अज्ञानी और अविश्वासी रोता है और दुःखी होता है और जिस पर तेरी कृपा होती है-वह अपने सिर से बड़ा ऋण चुकता देखता और अधिक तेरी अराधना जप, तप, करता हैतथा वह केवल तेरे नाम को औषधि मानता और श्रेष्ठ जानता है।


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