पूर्ण आहुति
पूर्ण आहुति
ओ३म् पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णत् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।
प्रश्न-हवन यज्ञ के अन्त में उपरोक्त मन्त्र का पाठ करके "सर्वं वै पूर्ण स्वाहा” पर सब सामग्री, घी तीन बोर दिया जाता है । इस मन्त्र पाठ का क्या तात्पर्य है _ उत्तर-अग्निहोत्री यदि यज्ञ में पूर्ण श्रद्धा रखता हो और उसे इस बात का पूर्ण विश्वास हो-कि जो कुछ मैं आहुति दे रहा हूं-वह मेरी नहीं है। परमात्मा की दी हुई दात से-उसकी भेंट कर रहा हूं और पूर्ण चमचा भर के देने पर भी जो शेष रह जाता है-वह भी पूर्ण ही रहेगा। परमात्मा पूर्ण है इस पूर्ण से जो भक्त बना वह भी पूर्ण है, और जो शेष बच रहा वह पूर्ण है । सब कुछ अग्नि की भेंट कर देने पर भी अग्निहोत्री यदि वास्तव में अग्निहोत्री है तो उसके पास फिर भी पूर्ण सामर्थ्य पूर्ण ऐश्वर्य बचा और बना रहता है। कभी उसके यज्ञ दान आदि करने से कभी किसी वस्तु में कमी नहीं आती। चाहे वह “सर्वं वै पूर्ण स्वाहा” की भांति सर्वस्व भी दे देवे। जैसे महात्मा कबीर ने कहा 'दान दिये धन न घटे' जैसे चिड़िया समुद्र में से चोंच भर लेवे, वह स्वयं भी तृप्त हो जावे तो भी समुद्र पर्ण का पूर्ण ही रहता है। नदी में से चुल्ल भर पानी पो लिया वह वैसी की वैसी भरी रहती है। आकाश में सब पदार्थ बनते हैं, सब में आकाश समाया हुआ है परन्तु शेष भी वैसे का वैसा पूर्ण ही है । अग्नि से सैंकड़ों दीपक जला लो, या अग्नियां जला लो वह अग्नि वैसी की वैसी पूर्ण रहती है। ऐसे ही अग्निहोत्री को निश्चय से जानना चाहिए। निश्चय और श्रद्धा पूर्ण न होने के कारण मनुष्य अग्निहोत्री होकर भी अपूर्ण बना रहता है । जैसे अग्नि छः मासे की आहुति लेकर उसे सर्व-स्थान में, जहां यज्ञ होता है, भरपूर कर देती है-सुगन्धि से। ऐसे ही अग्निहोत्री अपने इस कर्म से सामर्थ्य में ऐश्वर्य में पूर्ण ही पूर्ण रहता है।