पंडित विश्वनाथ विद्यालंकार का संछिप्त परिचय 


पंडित विश्वनाथ विद्यालंकार का संछिप्त परिचय 




अथर्ववेद और सामवेद भाष्यकार तथा अनेक प्रसिद्ध वैदिक ग्रंथों के रचयिता पण्डितप्रवर श्रद्धेय श्री विश्वनाथ विद्यालंकार विद्यामार्तण्ड वैदिक साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उनका विद्याध्ययन गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार की गंगापार की तपःस्थली में हुआ था, जहाँ उन्होंने महात्मा मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द संन्यासी) के सांनिध्य में व्रत साधना करते हुए विविध विद्याओं का उपार्जन किया था। गुरुकुल कांगड़ी के सर्वप्रथम स्नातक थे पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति तथा पं. हरिश्चन्द्र विद्यालंकार, जो दोनों ही गुरुकुल के संस्थापक महात्मा मुंशीराम जी के सुपुत्र थे तथा संवत् 1968 (सन् 1912) में स्नातक बने। आगामी वर्ष कोई स्नातक नहीं बना। उसके बाद संवत् 1970 (सन् 1914) में पांच स्नातक बने, उन्हीं में पं. विश्वनाथ विद्यालंकार भी थे। इस प्रकार वे गुरुकुल के प्रथम परिपक्व फलों में से थे। वेदों का पाण्डित्य प्राप्त करने में स्वामी दयानन्द सरस्वती को गुरु मानकर उनके ग्रन्थों से तथा उनके वेदभाष्य से सहायता लेकर किये गये उनके अपने परिश्रम का ही अधिक योगदान था, क्योंकि उस समय स्वामी दयानन्द की पद्धति से वेद पढा़नेवाले विद्वान् उपलब्ध नहीं थे। वेदों के अतिरिक्त श्री पण्डित जी भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनशास्त्र, रसायनशास्त्र, खगोल ज्योतिष, आंग्लभाषा आदि के भी अच्छे विद्वान् थे। पूज्य पण्डित जी का एक संक्षिप्त परिचय उन्हीं के शब्दों में, जो उन्होंने स्वयं कुछ पंक्तियों में लिखा था, नीचे दिया जा रहा है।


 


''मेरे पिता वजीराबाद, जिला गुजरांवाला (जो सम्प्रति पाकिस्तान में है) के निवासी थे। उनका नाम था लाला प्रीतमदास। इन दिनों देश भर में आर्यसमाज द्वारा गुरुकुल सम्बन्धी प्रचार से तथा गुरुकुल शिक्षा पद्धति के पक्ष में पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी जी आदि के विचारों से प्रेरणा पाकर मेरे पिताजी ने श्री मुंशीराम जी को मुझे गुरुकुल भेजने का वचन दे दिया। मैं उस समय लगभग 9 वर्ष का था। प्रारम्भ में वैदिक पाठशाला गुजरांवाला में मुझे प्रविष्ट कराया गया। यह वैदिक पाठशाला गुरुकुल का प्रारंभिक बीज था और इसके संचालक श्री मुंशीराम जी थे। स्व. श्री पं. गंगदत्त जी व्याकरणाचार्य वैदिक पाठशाला के आचार्य थे। इस पाठशाला में भावी गुरुकुल के ब्रह्मचारी भी रहते थे तथा अन्य उच्च आयुओं के विद्यार्थी भी। कुछ काल के पश्चात् ब्रह्मचारियों को शेष विद्यार्थियों से पृथक् गुजरांवाला की एक कोठी में ले आया गया। इस काल में स्व. पं. विष्णुमित्र जी ब्रह्मचारियों के आचार्य रहे। यहीं से ब्रह्मचारी श्री आचार्य पं. गंगादत्त जी तथा पं. विष्णुमित्र जी समेत श्री मुंशीराम जी की अध्यक्षता में गुरुकुल कांगड़ी


पहुंचे।''


 


''सन् 1914 में मैं स्नातक हुआ और लगभग दो-तीन मास बाद मुझे गुरुकुल में प्रोफेसर रूप में नियुक्त कर दिया गया। प्रारम्भ में मैं दर्शनशास्त्र तथा रसायनशास्त्र के पढ़ाने में नियुक्त हुआ। उस समय गुरुकुल में वेद पढ़ाने का कोई विशेष प्रबन्ध न था। दर्शन पढ़ाते हुए तर्कशास्त्र में मेरी रुचि न रही, इसलिये महात्मा मुंशीराम जी तथा प्रो. रामदेव जी की प्रेरणा से मैंने वेद पढ़ाने का कार्य स्वगत कर लिया। आचार्य रामदेव जी के आचार्यत्व-काल में लगभग 15 वर्ष उपाचार्यरूप में रहा, परन्तु कतिपय विषयों में मतभेद हो जाने पर त्यागपत्र दे दिया।”


 


''वैदिक साहित्य के लेखनकार्य में मेरी रुचि सन् 1942 के पश्चात् हुई जबकि मैं गुरुकुल की सेवा से मुक्त हुआ। सर्वप्रथम मैंने 'वैदिक गृहस्थाश्रम' पुस्तक लिखी। राजाधिराज उमेदसिंह जी के राज्यारोहणकाल में मुझे राजाधिराज जी ने आमन्त्रित किया और राजसूय पद्धति के अनुसार राजसूय यज्ञ कराया और 'वैदिक गृहस्थाश्रम' के प्रकाशनार्थ उन्होंने मुझे तीन हजार रुपये देने का वचन दिया। उस राशि द्वारा पुस्तक देहरादून में सन् 1947 में प्रकाशित की गई।''


 


''पंजाब-विभाजन के पश्चात् लाहौर में सर्वस्व का नुकसान हो जाने पर देहरादून में आ बसा। सन् 1973 तक मैंने और कोई साहित्य-ग्रन्थ न लिखा, क्योंकि उसके प्रकाशनार्थ धन मेरे पास न था। सन् 1923-24 के लगभग अजमेर में रहकर परोपकारिणी सभा के तत्वावधान में ऋग्वेद के संशोधित मूलपाठ को तैयार किया और मथुरा-शताब्दी के निमित्त महर्षि दयानन्द की पुस्तकों के दो संस्कृत संस्करण तैयार कर परोपकारिणी सभा को दे दिये, जिन्हें मथुरा–शताब्दी के लिए प्रकाशित कर दिया गया।''


 


''सन् 1956-57 में लगभग दो वर्ष मैं आर्य सार्वदेशिक वाटिका में अनुसंधान का कार्य करता रहा। 'वैदिक अनुसन्धान' त्रैमासिक का प्रकाशन तथा महर्षि के ऋग्वेदभाष्य के सुगम संस्करण के रूप में लगभग एक हजार मन्त्रों का भाष्य परोपकारिणी सभा को दिया।''


 


''सन् 1973 के लगभग रायसाहिब श्री प्रतापसिंह जी चौधरी करनाल द्वारा दी गई आर्थिक सहायता से सामवेद का आध्यात्मिक भाष्य, अथर्ववेद-परिचय, यजुर्वेद-स्वाध्याय तथा पशुयज्ञ-समीक्षा ग्रन्थ छपे। अथर्ववेद भाष्य के चार खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं, 5वाँ खण्ड लिख रहा हूँ। 'शतपथब्राह्मण और अग्निचयन-समीक्षा' ग्रन्थ छप रहा है और प्रत्येक वर्ष एक नया ग्रन्थ लिखकर प्रकाशनार्थ भेज देता हूँ। इस सब पर व्यय रायसाहिब श्री प्रतापसिंह जी कर रहे हैं। अथर्ववेद के बाकी काण्डों पर भाष्य चल रहा है। लिखना अब शनैःशनैः ही होता है। स्वास्थ्य प्रायः सहायक नहीं रहा।''


 


जब पूज्य पण्डित जी ने आत्मपरिचय की उपर्युक्त पंक्तियाँ लिखी थीं, तब तक अथर्ववेदभाष्य के अन्तिम चार खण्ड (अर्थात् काण्ड 11 से 20 तक) ही प्रकाशित हुए थे, तथा पाँचवाँ खण्ड (अर्थात् काण्ड 9 और 10 का भाष्य) चल रहा था। परन्तु मृत्यु से कुछ समय पूर्व पूज्य पण्डित जी के दृढ़ संकल्प तथा अध्यवसाय से अंतिम खंड (काण्ड १-३) के साथ सम्पूर्ण अथर्ववेद का भाष्य पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है। प्रबल अस्वास्थ्य तथा लिखते हुए हाथ काँपने की दशा में भी मान्य पण्डित जी भाष्य पूर्ण कर सके, यह पाठकों के लिये वरदान ही है। समझा यह जा रहा था                                                                                                                                                                 कि प्रथम खण्ड का भाष्य नहीं हो पाया है, क्योंकि आदरणीय पण्डितजी के देहावसान के पश्चात् द्वितीय-तृतीय काण्ड का भाष्य तो मिल गया था, किन्तु प्रथम काण्ड का भाष्य उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। परन्तु पण्डित जी की सुपुत्री श्रीमती इन्दिरा जी से हमारा संपर्क निरन्तर बना रहा तथा पण्डित जी के कागजों की छानबीन भी होती रही। परिणामतः प्रथम काण्ड का भाष्य भी उपलब्ध हो गया तथा हमने (श्री मनमोहन कुमार आर्य ने) प्रकाशनार्थ रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ को उसकी पाण्डुलिपि पहुँचा दी। काण्ड द्वितीय-तृतीय के भाष्य की पाण्डुलिपि उससे पूर्व ही स्वयं बहालगढ़ जाकर दे आये थे।


 


पू. पण्डित जी के अपने सम्बन्ध में लिखे गये एक त्रुटित हस्तलेख से ज्ञात होता है कि उनका जन्म सन् 1889 में हुआ था। आपके पिता श्री प्रीतमदास आर्य गुजरांवाला में आर्यसमाज के प्रधान थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के दर्शन किये थे। आर्यसमाज के सिद्धान्तों में दृढ़ता के कारण ही उन्होंने अपने पुत्र को गुरुकुल में प्रविष्ट कराया था। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से विद्यालंकार परीक्षा सन् 1914 में पं. विश्वनाथ जी ने प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम रहकर उत्तीर्ण की थी। वैदिक साहित्य, संस्कृत साहित्य, दर्शनशास्त्र और रसायनशास्त्र में पृथक्-पृथक् तथा सर्वयोग में भी प्रथम रहने के कारण आपको चार सुवर्णपदक एवं कई रजतपदक प्राप्त हुए थे। सन् 1914 में ही गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में उपाध्याय पद पर नियुक्त होकर निरन्तर 28 वर्षों तक सफल अध्यापन करते हुए मार्च सन् 1942 में वहाँ से सेवानिवृत हुए। सेवाकाल में आपका कार्य केवल पढ़ाना ही नहीं था, अपितु उपाचार्य होने के नाते छात्रों के व्रतपालन एवं चहुँमुखी विकास का भी आप उत्तरदायित्व सँभालते थे। समय-समय पर आप छात्रों की साहित्य संजीवनी आदि सभाओं में विविध विषयों पर भाषण देकर भी उनका ज्ञानवर्द्धन करते थे। विदेशों से जो छात्र या विद्वान् अपने ज्ञानवर्धनार्थ गुरुकुल आते थे, उनका भी वैदिक संस्कृति के विषय में मार्गदर्शन आप करते थे तथा वे गुरुकुल से पर्याप्त प्रभावित होकर स्वदेश लौटते थे।


 


वैदिक विषयों पर ग्रन्थलेखन प्रोफेसर विश्वनाथ जी ने गुरुकुल में रहते हुए ही आरम्भ कर दिया था, यद्यपि इनके अधिकतर ग्रन्थ सेवानिवृत्ति के पश्चात् लिखे गये। गुरुकुल में शिक्षक रहते हुए आपने वैदिक पशुयज्ञमीमांसा, वैदिक जीवन तथा सन्ध्या-रहस्य नामक पुस्तकें लिखी थीं। इनमें से प्रथम पुस्तक में आपने अनेक वैदिक एवं महाभारत, रामायण आदि के प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है कि यज्ञों में पशुहिंसा वेदानुमोदित नहीं है। द्वितीय पुस्तक में वेदमन्त्रों द्वारा वैदिक जीवन की झांकी प्रस्तुत की गयी है। यह मथुरा-शताब्दी पर प्रकाशित हुई थी। तृतीय पुस्तक में भूमिका सहित सन्ध्या के मन्त्रों की व्याख्या है, जिसकी एक विशेषता यह है कि व्याख्या में खगोल ज्योतिष का पर्याप्त उपयोग किया गया है। सेवानिवृत्ति के उपरान्त आपने जो ग्रन्थ लिखे, उनमें सामवेद और अथर्ववेद इन दो वेदों का भाष्य उल्लेखनीय है। इनका सामवेदभाष्य अध्यात्मपरक है तथा अब तक विद्वानों द्वारा हिन्दी में जो भी अनुवाद या भाष्य लिखे गये हैं, उनमें महत्वपूर्ण है। अथर्ववेदभाष्य इन्होंने उल्टे क्रम से आरम्भ किया था। सर्वप्रथम 20वें काण्ड का भाष्य किया, तदनन्तर 19, 18, 17 आदि के क्रम से इतर काण्डों का। उल्टे क्रम से भाष्य करने में यह हेतु रहा प्रतीत होता है कि अन्त के काण्डों में रहस्यमय स्थल अधिक हैं, यथा 20वें काण्ड में कुन्ताप सूक्त, 19वें काण्ड में मणिबन्धन सूक्त, 18वें काण्ड में पितृमेध-सूक्त एवं 15वें काण्ड में व्रात्य-सूक्त। 14वें काण्ड में दोनों सूक्त विवाह-सूक्त हैं, जिन पर आपने विशेष मनन-मन्थन किया हुआ था एवं रहस्यमय, उलझन-भरे तथा विवादास्पद सूक्तों का भाष्य पहले पाठकों के सम्मुख रख देने का प्रलोभन उल्टे क्रम से भाष्य करने का विशेष प्रेरक रहा है। पण्डित जी ने इस अथर्ववेदभाष्य में अपने खगोल ज्योतिष, निरुक्त, गणित, भौतिक विज्ञान, दर्शनशास्त्र आदि के ज्ञान का पर्याप्त प्रयोग किया है, जिससे कई सूक्तों का रहस्य नवीनरूप में प्रस्फुटित करने में आप समर्थ हुए। भाष्यशैली अत्यन्त सुबोध है। पण्डित जी का एक प्रौढ़ ग्रन्थ 'शतपथब्राह्मणस्थ अग्निचयनसमीक्षा' है, जिसमें शतपथ के जटिल अग्निचयन-प्रकरण की मीमांसा की गयी है। इस कोटि का एक ग्रन्थ 'यजुर्वेद स्वाध्याय तथा पशुयज्ञ-समीक्षा' है। इससे आपके यजुर्वेद के सूक्ष्म तथा गहन अध्ययन का परिचय


मिलता है। आपकी कतिपय अन्य पुस्तकें वैदिक गृहस्थाश्रम, बाल सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभूमिका का सरल अध्ययन, ऋग्वेद-परिचय, अथर्ववेद-परिचय तथा वीर माता का उपदेश हैं।


 


अपने प्रगाढ़ वैदिक वैदुष्य तथा अमर साहित्य साधना के कारण पूज्य पण्डित जी को कई संस्थाओं ने सम्मानित तथा पुरस्कृत करके स्वयं को सौभाग्यशाली माना है। पण्डित जी की मातृ-संस्था गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय ने अपनी सर्वोच्च पूजोपाधि 'विद्यामार्तण्ड' से आपको सत्कृत किया। आर्यसमाज सान्ताक्रुज मुंबई ने सन् 1987 में आपको 21 सहस्र रुपयों की राशि, रजत-ट्राफी, उत्तरीय एवं प्रशस्तिपत्र अर्पित कर अपने वेदवेदांग-पुरस्कार से सम्मानित किया। इनके अतिरिक्त आप सन् 1979 में गंगाप्रसाद उपाध्याय पुरस्कार तथा सन् 1983 में पण्डित गोवर्धनशास्त्री पुरस्कार से भी आदृत हो चुके हैं। उत्तरप्रदेश संस्कृत अकादमी भी आपको अथर्ववेदभाष्य आदि पर पुरस्कृत कर चुकी हैं। पण्डित जी की आयु के शत वर्ष पूर्ण होने पर आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से उसके प्रधान श्री वीरेन्द्र जी ने कन्या गुरुकुल देहरादून में एक आयोजन करके आपको सम्मानित किया था। इसी प्रकार आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तरप्रदेश के मन्त्री श्री धर्मेन्द्रसिंह आर्य द्वारा गठित समिति की ओर से भी आप समादृत हो चुके हैं।


 


आदरणीय पण्डित जी के अनेक ग्रन्थों के प्रकाशन का श्रेय रायसाहिब स्व. चौधरी प्रतापसिंह जी,  रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ तथा महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक को है। रायसाहिब द्वारा आर्थिक सहायता की निश्चिन्तता यदि पण्डित जी को न होती तो प्रकाशन के संदिग्ध होने के कारण वे ग्रन्थलेखन में भी प्रवृत्त न होते। रामलाल कपूर ट्रस्ट तथा पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने पण्डित जी के ग्रन्थों के प्रकाशन में पूर्ण रुचि ली। रायसाहिब के दिवंगत हो जाने के पश्चात् यह समस्या थी कि अथर्ववेद के शेष छः काण्ड कैसे प्रकाशित होंगे। किन्तु अर्थाभाव से ग्रस्त होने पर भी श्री मीमांसक जी की प्रेरणा से उक्त ट्रस्ट ने शेष काण्डों के प्रकाशन का भार वहन किया।


 


पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकार जी का जीवन अत्यन्त, सादगी तथा तपस्या से व्यतीत हुआ। उनका स्वभाव अति सरल था। आगंतुकों के सत्कार में उन्हें आनन्द आता था। गिरे हुए स्वास्थ्य में भी पत्रों का उत्तर अवश्य देते थे। सम्मत्यर्थ कोई लेखक उनके पास पुस्तकें भेजते थे तो उन पर सम्मति लिखना भी नहीं भूलते थे। गुरुकुल कांगड़ी के प्रायः सभी पुराने स्नातक उनके शिष्य हैं। अपने शिष्यों के प्रति उनके मन में वात्सल्य रहा। शिष्यों की उन्नति देख वे सदा प्रसन्न होते थे तथा उन्हें उत्साहित किया करते थे।


 


श्रीयुत पण्डित जी ने 103 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त की। अन्तिम समय तक वह लेखन-कार्य करते रहे। 11 मार्च 1991 को उन्होंने इहलोक-लीला संवरण की। उनकी शवयात्रा में देहरादून तथा गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के अनेक गणमान्य व्यक्ति सम्मिलित थे।


 


पण्डित जी की धर्मपत्नी श्रीमती कुन्ती देवी का जन्म सन् 1898 में क्वेटा में एक आर्यसमाजी परिवार में हुआ था। वे कन्या महाविद्यालय जालन्धर की प्रथम छात्राओं में थीं। पण्डित जी को सब कार्यों में सदा उनका सहयोग प्राप्त होता रहा। पण्डित जी के देहावसान के समय से ही वे अस्वस्थ चल रही थीं। 15 अप्रैल 1992 को 94 वर्ष की आयु में वे दिवंगत हो गयीं। उन्होंने चार पुत्रों एवं तीन पुत्रियों को जन्म दिया था। चार पुत्रों में क्रमशः डॉ. प्रेमनाथ, श्री राजेन्द्रनाथ, श्री सोमनाथ तथा श्री रवीन्द्रनाथ हैं, तीन पुत्रियाँ हैं श्रीमती कमला डबराल, श्रीमती विमला बहल, और श्रीमती इन्दिरा खन्ना। डॉ. प्रेमनाथ पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में दर्शन विभाग के अध्यक्ष थे, वे सन् 1975 में दिवंगत हो गये। श्री रवीन्द्रनाथ खन्ना बी.एस.एफ. में डिप्टी कमांडेंट थे। वे भी सम्प्रति इस लोक में नहीं हैं। इस समय शेष दोनों पुत्र एवं तीनों पुत्रियाँ विद्यमान हैं। पण्डित विश्वनाथ जी अपनी धर्मपत्नी सहित सबसे छोटी पुत्री श्रीमती इन्दिरा खन्ना के पास 61, कांवली रोड, देहरादून में रहते रहे, जो पूर्ण मनोयोग से उनकी सेवा करती रहीं। अधिकांश लेखन-कार्य पण्डित जी ने वहीं किया। इस प्रकार पण्डित जी के लेखन-कार्य का श्रेय उनकी पुत्री श्रीमती इन्दिरा जी एवं उनके परिवार को भी जाता है।


 


पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी ने जिस अमूल्य वैदिक साहित्य की रचना की है, उसके कारण उनका नाम सदा अमर रहेगा। उस साहित्य को पढ़कर उनके अनेक मानस पुत्र जन्म लेते रहेंगे।


 


 



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