निन्दा-निषेध

निन्दा-निषेध 


      मनुष्य को जीवन में कभी ना तो किसी की निन्दा करनी चाहिए और ना ही किसी की निन्दा सुननी चाहिये। दूसरों के अवगुण देखने के स्थान पर औरों के गुण और अपनी सदा गलतियां देखने में ही मनुष्य का कल्याण है हंस सदा मोती चुनता है और उसके ठीक विपरीत कौआ सदा कूड़े को खाता है । यानि हमें भी जीवन में सदैव हंस की भांति औरों के गुण देखकर उन्हें धरण करने का प्रयास करना चाहिए दूसरों के अवगुण देखकर उनकी निन्दा करके तो हम भी कौए के समान हो जायेंगे वैसे भी मनुष्य जब किसी की गलतिया निकलकर अंगुली उसकी ओर उठाता है तो उसके स्वयं के हाथ के नीचे छिपी उसकी अपनी ही शेष तीन अंगुलियां उसके अपनी ओर मुड़कर आत्मनिरीक्षण करने की चेतावनी देती है । जैसे कह रही हों दूसरों की गलतियां, अवगुण, दोष देखने वाले पहले तू स्वयं अपनी गलतियां दोष सुधर ले । यदि हम केवल दूसरों के अवगुण देखकर निन्दा ही करते रहेंगे तो निश्चित रूप से उन दोषों को खुद धरण कर लेंगे और इसके विपरीत यदि हम गुण ग्राहय बनकर औरों के गुण देखेंगे तो हंस बन जायेंगे।


      त्राफग्वेद में मा निन्दत । त्राफ. 4/5/2 कहकर वेद भगवान ने आदेश दिया निन्दा मत करो । चाणक्य ने निन्दा करने वाले को महाचंडाल बताया है और कहा कि निन्दा मनुष्य की जीते जी सारी दुर्गतियां कर देती है । अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि निन्दा कहते किसे हैं । कान्तदर्शी महर्षि देव दयानन्द ने निन्दा की परिभाषा दी है "जो मिथ्या ज्ञान, मिथ्या भाषण झूठा आग्रह जिससे उसके गुण छोड़कर उसके स्थान पर अवगुण लगाना निन्दा कहलाती है ।"


      यह ठीक है कि हम दूसरों की निन्दा ना करे ना सुने लेकिन इसके विपरीत यदि कोई हमारी निन्दा करता है ता' उ स घ्यानपूर्वक यं से सुनें और निन्दक का ध्न्यवाद करे जिसने हमें हमारी गलतियां दोष बताकर दूर करने का अवसर प्रदान किया । महात्मा कबीर ने तो अपनी निन्दा करने वाले के लिए यहां तक कहा-


निन्दक नियरे राखिये , आंगन कुटी छवाय ।


बिन पानी साबुन बिना , निर्मल करे सुभाय ।।


       यदि मनुष्य अपने निंदक को अपने पास बैठाकर य॑पर्वक अपनी निन्दा सनने का सामर्थ्य रखता है तो वह अपने दोष दूर कर सकता है यदि हम अपनी निन्दा नहीं सुन सकते तो हमें अपने अवगुणों का ज्ञान नहीं हो पाता और हम उन्हें दूर नहीं कर सकते । वैसे भी एक स्वाभाविक नियम है जैसी किया वैसी प्रतिक्रिया यदि हम औरों को गालियां देंगे तो लोग भी हमें प्रत्युत्तर में गालियां ही देंगे । मनुष्य को मधुमक्खी की भांति होना चाहिए जो पफूलों पर बैठकर उनका मीठा रस लेती है और मार्ध्य मधु का निर्माण करती हैं ठीक उसी प्रकार यदि हम दूसरों के गुण देखकर ग्रहण करते रहेंगे तो हमारा हृदय निर्मल और पवित्रा हो जायेगा । हमें जीवन में यह संकल्प लेना होगा-


औरों के हम दोष न देखें , अपने दोष विचारें ।


निन्दा करें न कभी किसी की , यही एक गुण धरें ।।


      अन्त में निष्कर्ष निकलता है कि यदि हम दूसरों के अवगुण दोष देखकर निन्दा ही करते रहते हैं तो उन दोषों को स्वयं भी ग्रहण करके दोषी बन सकते हैं और साथ ही स्वयं भी प्रत्युत्तर में निन्दा के पात्रा बनते हैं इसके विपरीत यदि हम दूसरों के गुण देखते हैं तो उनको धरण करके गुणी बनकर मन को पवित्रा एवं निर्मल कर लेते हैं हमें अपनी निंदा को बड़े धैर्य से सुनना चाहिए ताकि अपने दोषों को जानकर उन्हें दूर कर सकें और इसके लिए हमें अपने निन्दक का ध्न्यवाद करना चाहिये । जिस प्रकार ठोस पर्वत आंधि तूपफान में विचलित नहीं होता अडिग रहता है उसी प्रकार हमें भी प्रशंसा या निन्दा सुनकर समभाव रहना चाहिये । जिस मनुष्य में अपनी निन्दा धैर्यपूर्वक सुनने की सहनशक्ति आ जाती है वह अत्यंत वीर विजयी होता है ।


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