नव संवत्सर का आह्वान जगे सुप्त राष्ट्र स्वाभिमान

नव संवत्सर का आह्वान


जगे सुप्त राष्ट्र स्वाभिमान



      नवं संवत्सर का आगमन। राष्ट्र के अतीत का करें स्मरण। वर्तमान का आकलन। स्वर्णिम भविष्य के सृजन का करें संकल्प ग्रहणउसकी पूर्ति हेतु स्वकर्त्तव्य का निर्धारण करना होगा राष्ट्र में स्वाभिमान का स्फुरण।


      भारत एक प्राचीनतम राष्ट्र है। भारत को नवोदित राष्ट्र अथवा 'ए नेशन इन द मेकिंग' कहना भूल है, राष्ट्रीय स्वाभिमान का विस्मरण है। वैदिक ऋषि के कंठ से मुखरित हुए इस महान निर्देश का करें स्मरण :


       यह राष्ट्र आपका है, आप इसे दृढ़तापूर्वक धारण करें, इसको सुव्यवस्थित रखें, उत्तम कृषि के लिए, समृद्धि के लिए, कल्याण के लिए एवं पुष्ट रहने के लिए यह राष्ट्र आपको प्रदान किया गया है।


      उपर्युक्त मंत्र में राष्ट्र की अवधारणा एक ऐसी जीवन्त इकाई के रूप में की गई है जो अपना नियमन स्वयं करती है और दृढ़तापूर्वक धारण की जाती है। जिसमें विघटन की प्रवृत्ति नहीं है और जिसके सभी सदस्य परस्पर स्नेह और कल्याण की आत्मीय भावना के सूत्र द्वारा आबद्ध हैं। "शतपथ ब्राह्मण" एक तृप्त, संतुष्ट, आत्मनियंत्रित बलवान, समृद्ध एवं कल्याणकारी समूह के रूप में राष्ट्र का स्मरण करता है।


      वैदिक ऋषियों ने राष्ट्र-जीवन के सम्बन्ध में गहन चिन्तन किया हैउस चिन्तन के अनुसार राष्ट्र कोई यंत्र नहीं है। व्यक्ति राष्ट्र किसी मशीन के कल-पुों के समान जोड़-गांठ कर बनाया कोई यंत्र नहीं है। व्यक्ति राष्ट पुरुष के शरीर का वैसा ही अंग है, जैसे व्यक्ति के शरीर में विभिन्न जीवकोश हैं। राष्ट्र एक स्वयंभू सत्ता है, व्यष्टि की भांति समष्टि का भी व्यक्तित्व एवं चरित्र होता है। व्यक्ति राष्ट्र में जन्म लेता है और राष्ट्र ईंट-गारे से नहीं, व्यक्तियों से ही निर्मित होता है। वस्तुतः दोनों का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। व्यक्ति न तो राष्ट्र का दास है और न ही वह उसका पिता अथवा स्वामी बन सकता हैव्यक्ति राष्ट्र का प्रतिनिधि होता है और इस अर्थ में राष्ट्र के गुण-धर्म उसमें प्रतिबिम्बित हैं। व्यक्ति और राष्ट्र के गुण-धर्मों के प्रति आस्था ही राष्ट्रीय स्वाभिमान का अधिष्ठान है। अतः राष्प की प्रगति एवं उसके अंगरूप व्यक्ति की प्रवृत्ति एवं आचरण में सामंजस्य स्वस्थ राष्ट्र जीवन की सहज आवश्यकता हैं। जिस तरह मन, बुद्धि, शरीर एवं आत्मा के समुच्चय द्वारा हम व्यक्ति को परिभाषित करते हैं, उसी प्रकार राष्ट के आधारभूत तत्व हैं-देश,जन,संस्कृति और चितिइसमें से किसी एक का भी अभाव हो तो राष्ट्र अपने शुद्ध और सशक्त तथा समृद्ध रूप को प्राप्त नहीं कर सकेगा। इन चारों तत्वों में चिति ही राष्ट्र की आत्मा है, उसकी मूल चेतना हैएक राष्ट्र हैं हम, यही तो है राष्ट्र होने की अनिवार्य शर्त। मैं इस राष्ट्र का अंग हूं और हम एक राष्ट्र हैं, यह धारणा ही उस परस्पर आत्मीय, जीवन्त सम्बन्ध का निर्माण करती है, जिससे राष्ट्रीय परम्पराएं विकसित होती हैं। उन्हीं परम्पराओं की स्मृति दिलाता है, संवत्सर पर्व। उसी परम्परा के प्रति आसक्ति-अनुरक्ति का जगाया था मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने-चैत्र सुदी नवमी अर्थात् रामनवमी-उनकी जयन्ती है, जिस पूर्व का परिपालन इसी माह सम्पन्न होता है। जबकि चैत्र सुदी 5-महर्षि दयानन्द द्वारा संस्थापित आर्यसमाज का स्थापना दिवस है, जिसका प्रमुख कार्य है, उस आर्य परम्परा को पुनः ऊर्जा प्रदान करना, जो वेदप्रणीत है। वेदपथ से भटके राष्ट्र को अपने अतीत की सांस्कृतिक पहचान के प्रति श्रद्धानत-अनुरक्त करने के लिए देव दयानन्द ने 'लौटो वेदों की ओर' का निनाद गुंजाकर उस 'चिति' की अनुभूति कराई थी, जो राष्ट्रीय भावना को जागृत रखने की अक्ष्य ऊर्जा है।


      इस तथ्य को विस्त नहीं किया जाना चाहिए कि 'चिति' की जब तक अनुभूति होती रहती है, तब तक राष्ट्रीय भावना बनी रहती है, पर राष्ट्र-रूपा शरीर का स्वास्थ्य, उसका ओज. उसका पौरुष तो 'विराट' पर ही निर्भर करता है'विराट' ही राष्ट को गतिशील बनाए रखता है। क्योंकि 'विराट' के लाप हो जाने पर 'चिति' भी शनैःशनैः लुप्त हो जाती है।


      राष्ट्र-पुरुष का भौतिक स्वरूप व्याख्यायित होता है देश और जन द्वारा। पर किसी भी देश में कोई भी जन राष्ट्र नहीं बन पाता। भूमि और जन के बा एक नितान्त आत्मीय नाता होना आवश्यक है। केवल दीर्घकालीन निवास है पर्याप्त नहीं है। वैदिक वाङमय में कहा है 'माता भूमि पुत्रो ऽह पाया यह भूमि हमारी माता है और हम इसकी सन्तान हैं। हमारा नाता माता-पुत्र पावनतम नाता है। यही भाव वेद का निनाद जगाता है। इसी भाव को वाद चिन्तन-दर्शन और 'सत्यार्थ प्रकाश' से प्रकाशित मन के धनी, स्वातन्त्र्य समर के उद्भट सेनानी वीर विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'हिन्दुत्व' में, राष्ट्र के प्रति अनन्य निष्ठा की आवश्यक शर्त के रूप में, इस भारत-वसुन्धरा को 'पुण्य भूमि' के रूप में राष्ट्र के जन-गण के मन में प्रतिष्ठित करने का उद्घोष किया था। वस्तुतः संस्कृति ही है, जो किसी राष्ट्र की पृथक् पहचान को प्रतिबिम्बित करती है। एक राष्ट्र के रूप में मानव कल्याण हेतु किए गए सम्यक् कृत्यों के सुपरिणाम ही संस्कृति के निर्माता होते हैं। नि:सर्ग प्रदत्त सामूहिक गुण-सम्पदा में उत्तरोत्तर परिष्कार का सुफल ही तो संस्कृति है। इस दृष्टि से संस्कृति एक निरन्तर गतिमान अवधारणा है, यह किसी राष्ट्र के शिव संकल्पों का प्रतिफलन है। यह संस्कृति ही है जो हमें अपने अतीत से जोड़ती है और भविष्य की दिशा का संकेत करती है। इसे प्रवाहमान रखने के लिए संवत्सर सरीखे पर्व के परिपालन की महत्ता है।


      को एक समान संस्कृति के उत्तराधिकारी होने की रोमांचकारी अनुभूति ही राष्ट्रीय अनुभूति, राष्ट्रीय एकात्मता को परिपुष्ट और सम्पुष्ट करती है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास का जो अविस्मरणीय अध्याय आंग्ल दिनदर्शिका के अनुसार इस अप्रैल मास में स्मरण हो आता हैं, वह है जलियांवाला बाग में तत्कालीन आंग्ल सत्ता द्वारा किया गया नरसंहार, जो 13 अप्रैल 1916 को वैशाखी के सांस्कृतिक पर्व पर घटित हुआ था। वैशाखी के सांस्कृतिक पर्व पर पंजाब भर से लोग भारी संख्या में हरमन्दिर(दरबार साहब) के दर्शन और (रामदास सरोवर नहाते, सब उतरे पाप-पुण्य कमाते) पर श्रद्धा के वशीभूत अमृत सरोवर में स्नान हेतु उमड़े चले आते हैं।


      उस दिन हुए नरसंहार ने भी इसी सत्य का साक्षात्कार कराया था कि भारत में राष्ट्रीय चेतना का मूल संस्कृति में निहित है, राजनीति में नहींहमारी राष्ट्रीयता का अधिष्ठान संस्कृति है, राजनीति नहीं। भारतीय व्यवस्था में राज्य का काम इस संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन है।


      हमें संवत्सर के पावन पर्व, "आर्यसमाज स्थापना दिवस" तथा "राम नवमी" पर्यों के परिपालन तथा जलियांवाला की खूनी वैशाखी के स्मृति दिवस पर शहादत का वरण करने वाले हुतात्माओं का पुण्य स्मरण करते हुए यह संकल्प ग्रहण करना होगा कि हम गण और तंत्र के अन्तर्विरोध को सुलझाने के लिए उन तत्वों से जूझेंगे, जो इस स्थिति के सर्जनहार हैं। युवा शक्ति में राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावनाओं को जागृत करने को इस संस्कृति का शक्ति के प्रति आश्वस्त जन अपना दायित्व माने और युवाजन नवसंवत्सर के परिपालन के अवसर पर यह सत्सकल्प ग्रहण करे की वे अपने महान राष्ट्र को विश्व मंच पर एक अजेय राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु अपने उज्ज्वल अतीत के प्रकाश में वर्तमान को पढ़कर स्वाणम तसवीर गढ़ने की दिशा में प्रवृत्त होंगे। हम राष्ट्र को उस भावना से आप्लावित करने हेतु सक्रिय होंगे, जिसमें इस देश की धरती के हर कंकर म शकर दृष्टिगोचर होता है और इसकी मिट्टी को स्वर्ग से भी महान मानने की भावना-जन-गण के मन को स्फूर्ति प्रदान करे। उस वायुमंडल का सृजन करने का दायित्व जगाने को वर्तमान युवा पीढ़ी अपना दायित्व माने जिसमें स्वदेशी परिधान, स्वसंस्कृति का स्वाभिमान और वर्गसंघर्ष नहीं अपितु वर्गहितों का समन्वय ही विषमता की विभीषिका से मुक्ति का पथ माना जाएगाऔर इसमें प्रेरणास्रोत बनेंगे राष्ट्र के जन-जन के वे हतात्मा और पुण्यात्मा जिन्होंने सबल, सुदृढ़ और समृद्ध तथा स्वतन्त्र भारत का स्वप्न अपने नेत्रों में बसाकर वध-स्तम्भों पर हंसते-हंसते झूल कर अपने जीवन प्रसून देशमाता के चरणों में समर्पित किये थे राष्ट्र की युवा पीढ़ी इस तथ्य कोण हृदयंगम करे की वैश्वीकरण और उदारीकरण जैसे नारो की उछाल से सम्रद्धि का वास्तविक अर्थो में दर्शन नहीं होगा सच्ची समृद्धि तो तभी आएगी जब इस देश के उघमियों और व्यापारियों को अपने आर्थिक पुरुषार्थ के प्रदर्शन का पूर्ण अवसर मिलेगा और जण-गण तथा समाज के प्रति आत्मीय और सम्पूर्ण का स्वसंस्कृति का मूल दिशा निर्देशन उनका मार्गदर्शक बनेगा | 


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।