नकारात्मक प्रचार मत करो का जवाब
यह सन् 1951 के आस-पास की बात है। आर्यसमाज के सबसे लोकप्रिय पत्र 'आर्य मुसाफिर' के पूर्व सपादक महाशय चिरञ्जीलाल जी 'प्रेम' लेखराम नगर (कादियाँ) पधारे। वह आर्य समाज के एक जाने माने शास्त्रार्थ महारथी थे। सायंकाल उनके साथा्रमण के लिए निकला। मैं तब कालेज का विद्यार्थी था। उनसे कहा- आर्य समाज की लेखनी व वाणी से सेवा की चाह है। आप अपने अनुभव से मार्गदर्शन कीजिये।
तब महाशय जी ने अपने दीर्घकालीन अनुाव से एक पते की बात कही कि जो मिशन की सेवा की भावना रखना चाहता है, उसे प्रत्येक मुय-मुय सिद्धान्त का ज्ञान होना चाहिये और कुछ सिद्धान्तों का व्यापक व गभीर ज्ञान होना चाहिये। अब यह देखने में आता है कि फेसबुक लिये बैठे अनुभवहीन युवक बहुत थोड़ा पढ़-सुनकर स्वयं को रिसर्च स्कॉलर व शास्त्रार्थ महारथी व योगिराज मान लेते हैं। इससे उनका अपना पतन होता है और समाज की हानि होती है।
विद्वानों की एक सभा में कुछ विचार हो रहा था। योग चार पर छह व्यायान सुनकर स्वयं को योग गुरु के रूप में स्थापित करने की इच्छा वाले एक अति उत्साही युवक ने यह टिप्पणी करके विचित्र व्यवस्था दे दी कि नकारात्मक प्रचार मत करो। सकारात्मक उपदेश प्रवचन होने चाहिये। ऐसे अधकचरे योगी रजनीश की पुस्तकें पढ़ कर ऐसी व्यवस्थायें देने के अयासी हैं।
बात व सोच सकारात्मक हो, गुणियों को यह सीख मान्य है परन्तु क्या किसी दुष्कर्म, कुकर्म व पाप से बचने के लिये कहना व रोकना, यह नकारात्मक उपदेश व पाप है? सब मत पंथों में ऐसी शिक्षायें हैं। सब देशों के विधान में ऐसे राज नियम है। मनोविज्ञान व दर्शन के ग्रन्थों में ऐसी शिक्षायें हैं। वेद, दर्शन, उपनिषद् व ऋषि के ग्रन्थों, प्रवचनों व उपदेशों में ऐसे सुविचार मिलते हैं।
'अक्षैर्मा दीवव्य' जुआ मत खेलो- यह वेदादेश क्या नकारात्मक होने से अमान्य है? 'मा गृधः' इस वेदोपदेश के लिये ऐसे अधकचरे योगी क्या कहेंगे? योग के यम-नियमों पर ही कुछ विचार किया जाता तो बात स्पष्ट हो जाती है। अहिंसा, सत्यास्तेय तथा अपरिग्रह के लिए क्या कहा जायेगा? महर्षि दयानन्द जी के आर्याभिविनय रूपी सुधा सिन्धु में ऐसी पचासों विनय या सूक्तियाँ मिलेंगी। वेद में प्रमाद आदि दोषों से बचने का आदेश है। वेद में गऊ का एक नाम ही नकारात्मक आदेश है अर्थात् जिसकी हिंसा न की जाये। वेद में सूर्योदय के समय सोने से रोका गया है। शास्त्र क्रोध न करने की भी आज्ञा देता है। आशा है कि आर्य समाज के गुणी, विद्वान् तथा अनुभवी साधु महात्मा यह नया और घातक दुष्प्रचार समय रहते ही रोक देंगे।
सद्धर्म प्रचारक उर्दू विषयक जानकारीः– परोपकारी के एक गत अंक में 'सद्धर्म प्रचारक उर्दू व हिन्दी में जन्म की तिथियों के विषय में भ्रामक लेखों का निराकरण करते हुए कुछ लिखा गया था। सद्धर्म प्रचारक उर्दू के बारे में विनीत ने यह लिखा था कि यह कब तक निकलता रहा, यह इसके अन्तिम अंक को सामने रखकर कभी फिर जानकारी दी जायेगी। स्मृति के आधार पर यह लिखा था कि लाला लाजपतराय जी के निष्कासन तक यह छपता रहा। यदि इसमें कुछाूल होगी तो इसका सुधार कर दिया जायेगा। पाठक अच्छी प्रकार से नोट कर लें कि उर्दू में फरवरी 1907 के अन्तिम सप्ताह तक ही यह छपता रहा । मार्च 1907 में जब हिन्दी में यह निकलने लगा तब उर्दू संस्करण बन्द कर दिया गया। लाला लाजपतराय को तो नौ मई को बन्दी बनाया गया था। क्रान्तिवीर अजीतसिंह को दो जून को अमृतसर में बन्दी बनाया गया। कुछ लेखकों का यह विचार सत्य नहीं कि दोनों को एक ही समय बन्दी बनाया गया। हमने 'सद्धर्म प्रचारक' उर्दू के प्रथम तथा अन्तिम वर्ष के अंक देखकर यह प्रामाणिक जानकारी दे दी है।'
डंके की चोट से कहियेः- गत दिनों दिल्ली के एक उत्साही आर्य युवक ने श्री डॉ. अशोक आर्य जी के निवास पर कई ठोस प्रश्न पूछते हुए कहा कि पौराण्कि विद्वान् अब तक यह कहते व लिखते हैं कि काशी शास्त्रार्थ में महर्षि दयानन्द ही पराजित हुए थे। काशी के पण्डित तब विजयी रहे थे। उस आर्य युवक विशाल को तब कहा था कि पौराणिक तो यही कहते रहेंगे। आप इसकी चिन्ता न करें। तथ्यों से इसका प्रतिवाद करते रहे। तब उस युवक को तत्कालीन स्रोतों के कई प्रमाण दे दिये थे।
अब पुनः किसी ने इस विषय पर एक प्रश्न पूछा है। हमारे लोगों की यह चूक है कि हम कुछ महत्त्वपूर्ण प्रमाणों व तथ्यों को डंके की चोट से बार-बार प्रचारित नहीं करते। कोलकाता के अलय शास्त्रार्थ के सपादकीय में हमने लिखा था और परोपकारिणी सभा ने इसे पुनः प्रकाशित व प्रसारित भी कर दिया कि काशी शास्त्रार्थ के बारह वर्ष पश्चात्ाी कोलकाता में प्रतिमा पूजन की पुष्टि में वेद का एक भी प्रमाण तीन सौ पण्डितों का जमघट न दे सका। इससे बढ़कर ऋषि की विजय का और प्रमाण क्या चाहिये? सपूर्ण जीवन चरित्र में हमने अलय स्रोतों के कई नये प्रमाण खोद-खोद कर दिये हैं।
अमरीका में धूम मच गईः– प्रतीक्षा कीजिये परोपकारिणी सभा महर्षि दयानन्द जी पर एक अनूठी व महत्त्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित करने वाली है। इसमें महर्षि के जीवनकाल में अमरीका के पत्र में छपा एक लबा लेख दिया जायेगा। यह लेख कोलकाता की सभा से भी पहले छपा था। इस लेख में स्पष्ट शदों में यह लिखा गया है कि देश भर का कोई भी विद्वान् स्वामी दयानन्द की इस चुनौती को स्वीकार नहीं कर सका कि मूर्तिपूजा की पुष्टि में वेद का कोई मन्त्र लाओ, दिखाओ। दयानन्द स्वामी ललकार रहा है और किसी में उससे शास्त्रार्थ करने का साहस नहीं है। कल्पित शंकाओं को उठाकर शंका समाधान की बजाये, हमें अकाट्य सामग्री का उपयोग करके अपने प्रचार को प्राावशाली बनाना चाहिये।
पं. रामचन्द्र जी देहलवी का गौरवपूर्ण इतिहासः- आर्य समाज के शास्त्रार्थ महारथियों के छोटे-छोटे जीवन चरित्र तो पहले भी छपते रहे परन्तु संस्थावाद के कीच-बीच फंसे आर्यसमाज के महर्षि के प्यारे मिशन की कीर्ति भवन के लिये शीश तली पर घर कर शास्त्रार्थ करने वाले अपने विद्वानों के उनके व्यक्तित्व व कर्तृत्व के अनुरूप खोजपूर्ण जीवन चरित्र न लिखे और न छपवाये। जिन्होंने कुछ लिखा व किया, हम उन सबके ऋणी हैं। इस सेवक ने इस चुभने वाले अभाव का निराकरण करते हुए पं. लेखराम जी तथा स्वामी दर्शनानन्द जी पर बड़े-बड़े ग्रन्थ छपवा दिये।
आर्य समाज को उस विदेशी मुसलमान युवा स्कॉलर का आभारी होना चाहिये जिसने इस सेवक को प्रेरणा देकर पं. रामचन्द्र देहलवी पर 400 पृष्ठों का ग्रन्थ लिखवा लिया। श्री अजय आर्य जी ने समय सीमा पर इसे प्रकाशित करके अपने पितामह ला. गोविन्दराम जी की स्वर्णिम सेवाओं के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया।
आर्य समाज में पूज्य पंडित जी की प्रत्युत्पन्नमति की कुछ फुलझड़ियाँ हमारी पुस्तकों से चुन-चुनकर चुटकले से छपने लगे। हमने उनके शास्त्रार्थों के मौलिक तर्कों को खोज-खोज कर अपनी पुस्तकों में दिया। उनका उपयोग किसी विरले वक्ता ने ही किया। यह हम लोगों का दोष है।
तब हमने यह प्रश्न उठाया था कि हमने पं. भगवद्दत्त जी का एक साक्षात्कार लेते हुए पण्डित रामचन्द्र जी देहलवी के शास्त्रार्थों की दर्शनिक महत्ता का उल्लेख करते हुए, आर्यसमाज के पुराने लोगों से (विशेष रूप से दिल्ली वालों से) पूछा था कि पण्डित जी ने न्याय आदि दर्शन किससे पढ़े थे? पण्ड़ित जी से अपने सबन्धों व ऊहा के बल पर अपना मत यह दिया कि हमें यही लगता है कि आपने स्वामी दर्शनानन्द जी से दर्शन पढ़े थे।
तब मेरठ क्षेत्र से स्वामी पूर्णानन्द जी के शिष्य ग्रामीण आर्य प्रचारक श्री मंगूसिंह आर्य ने वेदपथिक श्री धर्मपाल जी द्वारा हमें अपना संस्मरण लिखकर भेजा था कि एक बार श्री पण्ड़ित जी हमारे घर पर मेरे पिता जी से धर्म चर्चा कर रहे थे। तब बातों-बातों में यह कहा था मैंने स्वामी दर्शनानन्द जी से दर्शन पढ़े थे। इसके थोड़ा समय के पश्चात् श्री पं. बिहारीलाल जी की एक पुस्तिका में भी इसकी पुष्टि पढ़कर हमें बहुत आनन्द हुआ। खेद है कि आर्य वक्ता लेखक भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी तथा महात्मा नारायण स्वामी जी की शैली को छोड़कर सरकारी सन्तों के सदृश हल्के ढंग से तुक मिलाकर भाषण देने लग गये हैं। इससे न तो इतिहास की सुरक्षा हो सकेगी और न प्रामाणिकता ही रहेगी।
ठाकुर मुकन्दसिंह जी की पुस्तकः– ऋषि के महान् भक्तों में से एक ठाकुर मुकन्दसिंह जी छलेसर ने 'तहकीक उलहक' (सत्य की खोज) नाम से एक पुस्तक अलीगढ़ से छपवाई थी। आशा थी कि यह उर्दू पुस्तक आर्यसमाज बुढ़ाना द्वार मेरठ से मिल जायेगी परन्तु वहाँ न मिली। अब मेरठ के माननीय श्री यशपाल जी इसके लिये भाग दौड़ कर रहे हैं। वह स्वयं छलेसर अलीगढ़ जायेंगे। अलीगढ़ के आर्य भाई- श्री देवनारायण जी आदि सहयोग करें तो यह कार्य हो सकता है। आर्यों! यह मत भूलें कि ठाकुर मुकन्दसिंह जी तथा ठाकुर भोपालसिंह जी ने ऋषि के देह-त्याग तक महाराज की जी भरकर सेवा की, सबसे लबे समय तक ऋषि के सपर्क में रहे। महर्षि ने उन्हें अपने साहित्य का मुतार नियत किया था। वे हमारे इतिहास पुरुष हैं। इसलिये इस पुस्तक की खोज को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर इसकी खोज कीजिये।
आर्य समाज की चक्की निरन्तर चलती चलेः– कभी श्री महाशय कृष्ण जी ने अपने एक लेख में लिखा था कि आर्य समाज की चक्की चलती तो धीरे-धीरे है परन्तु पीसती बारीक है। यह वाक्य पढ़ते ही हृदय पर अंकित हो गया। अब कई युवक मिलकर व चलभाष पर मत पंथों पर, आर्य समाज के इतिहास पर प्रश्न पूछते रहते हैं। भिन्न-भिन्न विषयों की पुस्तकों के बारे में जानकारी मांगते हैं। कोई कहता है कि सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्धों व चलाये गये अभियोगों पर मैं पुस्तक लिखने लगा हूँ। कुछ पुस्तकों के नाम बता दें। एक ने पूछा कि सिखों व आर्य समाज पर मैंने लिखना है कोई एक-आध पुस्तक बता दें।
ऐसे उतावले सज्जनों को सदा यही कहा है कि 100-50 पुस्तकें पढ़कर ही कुछ लिखिये। विषय से न्याय होना चाहिये। अतिउत्साह से गड़बड़ ही होगी। आप देखिये सत्यार्थ प्रकाश पर केस तो चार-पाँच चले परन्तु प्रतिबन्ध तो एक ही बार सिंध में लगाया गया और वह भी केवल चौदहवें समुल्ललास पर। तब पुस्तकें भी छप गई। इन नादान मित्रों ने पटियाला मेंाी सन् 1920 में प्रतिबन्ध लगा दिया और निजाम राज्य में प्रतिबन्ध की कहानी गढ़ ली। सपादकों ने लेख छाप दिये। पुस्तकें भी छपने लगीं।
क्या गप्पें गढ़ने से सत्यार्थप्रकाश का गौरव बढ़ गया? अभी फिर सिखों के राजनेताओं ने लाखों के विज्ञापन छपवा कर दैनिक पत्रों में वीर वैरागी को 'बन्दा सिंह बहादुर' बना दिया है। पहले भी अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम तथा सिखों के एक जाने-माने इतिहासकार के प्रमाण देकर हमने परोपकारी में इस अनर्थ का प्रतिवाद किया था। इनके बस में हो तो यह गुरुनानक जी, गुरु अंगददेव जी आदि सबको पक्का अकाली बनाने के लिए उनके नामों के साथ भी सिंह लगा दें। आश्चर्य की बात है सिखों के इतिहास पर अपनी रिसर्च का परिचय देने वाला कोई व्यक्ति अब भी नहीं बोला।
चलभाष पर और मिलने पर जो मौलाना सना उल्ला, श्री अनवरशेख, डॉ. गुलाम जेलानी, मौलाना अदुल्ला के साहित्य व विचारों पर चर्चा करते हैं, उनको यही सीख देता हूँ निरन्तर स्वाध्याय करो, श्रम करो। रात-रात में आप पं. शन्तिप्रकाश व ठाकुर अमरसिंह नहीं बन सकते। महाशय कृष्ण जी की सीख लो। बारीक पीसने की परपरा अखण्ड बनाओ। मेरे साहित्य में से डॉ. गुलाम जेलानी का नाम तो याद कर लिया उनके उद्धरण देकर वैदिक सिद्धान्तों की जो पुष्टि की है उसको हृदयङ्गम करो। आर्य साहित्य का प्रसार करो।