“मेधामय”

“मेधामय”


 


यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु।। (यजु.32/14)


पृथ्वी, आप, वरुण, अग्नि, आकाष, खम् और ऋच ये सप्त देव गण दस-दस देव गुणों का मुझमें गन्ध, रस, रूप, स्पर्ष, शब्द, पंचेक प्राण, वच सप्त शक्तियों के रूप में नासिका, रसना, चक्षु, त्वक्, श्रोत्र, प्राणना और वाक् अधिकरणों से अवतरण करें या इनका मैं अस्तित्व में उपरोक्त विधा से अवतरण करूँ तथा ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम सिद्ध करके पिता दायित्वों से तरके समस्त अधिकार तथा सत्ता का पुत्र को प्रदत्तीकरण करके अरण्यकी वानप्रस्थी तथा ब्रह्मणी संन्यासी यह मैं यम लोक पांच यम, पांच नियम, पांच वियम, त्रि संयम सिद्ध करके मेधा की अग्नि से ज्योतित मेधाविनं या मेधामय बनूं।


सप्त देवगणों में दस-दस देव गुण एक बृहत् महान् योजना है। दस देव गुण हैं- 1) शुद्ध व्यवस्था का नियामक (क्रीडा), नियमबद्धों को लक्ष्यसिद्धि हेतु साधन-उपसाधन प्रदाता (विजिगीषा), 3) स्वयं ज्योतित हो ज्योति बांटता (द्युति), 4) जैसा है वैसा कहता- प्रशंसनीय (स्तुति), 5) आनन्दमय आनन्द बिखेरता (मोद), 6) मद उन्मत्तों को जीतता (मद), 7) उदात्त लक्ष्यमय (स्वप्न), 8) शुभ कामनामय कामना योग्य (कांति), 9) अगतिशील सव्रगतिदाता (गति), 10) वर्तना तथा वर्तमान जानता (व्यवहार)। सप्त देव उपरोक्त दस गुणों के अनुरूप कार्य करें जिसके वह कालान्तर में गृहस्थ सिद्ध पितर होता यम-नियम-वियम-संयम सिद्ध करके मेधावी या मेधामय होता है। पितर में उसके शरीर में त्रयी विद्या तपती है। पितर की अयोध्या सप्त देवपुरी, आठ चक्र, नौ द्वारों मयी हिरण्यकोषा है। इसमें ज्ञान, कर्म, उपासनामय चारों वेदों का ज्ञान विद् होकर उतरता है। सप्तेन्द्रियों तथा आठवे मन में ऋषियों के माध्यम से त्रयी विद्या पनपती है। त्रयी विद्या के कई प्रारूप हैं। त्रिवृत्, गायत्री, त्रिष्टुभ, त्रि-पंच (पंचदश), त्रि-सप्त (एकविंश), त्रिणव त्रयóिंश आदि। इन विद्याओं के माध्यम सप्त ऋषि और मन ऋषि हैं जो इन्द्रिय का त्रि-विद्या से परिष्कार करता है।


मन का ऋषि है भरद्वाज ! वाज नाम है वेद ज्ञान का। भरद्वाज ने जब-जब ब्रह्म से उम्र चाही तब-तब स्वयं में वेद ही वेद भरा। हर शत वर्ष शताधिक आयु में स्वयं में वेद ही वेद भरनेवाला ऋषि भरद्वाज है। मन भरद्वाज हो मन में ऋक्, यजु, साम, अथर्व लबालब छलकते-छलकते भर जाएं तो मन भरद्वाज हो जाए। वाक् का ऋषि है विश्वकर्मा। तैंतीस देव, तैंतीस अक्षर ब्रह्म, गुणित-अनुगुणित तैंतीस विस्तार वाक् का विश्वकर्मा होना है। प्राण का ऋषि वशिष्ठ है। मधुमय होकर अतिशय वास करनेवाले का नाम वशिष्ठ है। प्राण-आयाम सधते ही ध्यान-धा ध्यान-पा व्यक्ति एका-सिद्ध वशिष्ठ होता है। श्रोत्र का ऋषि विश्वामित्र है। श्रोत्र ध्वनि ग्रहण करता है। आयतनात्मक ध्वनियां विश्व की मित्र हैं। भद्र ध्वनि वेद है। वेद-ज्ञानी विश्वामित्र है। भद्र श्रुतिमय होना विश्वामित्र होना है। त्वक् का ऋषि लोमश है। रोम-रोम स्पर्श आह्लाद भर लिया है जिसने वह लोमश है। अन्तर्स्पर्शन सिद्धि लोमशत्व है। चक्षु का ऋषि जमदग्नि है। तेजोमय अग्नि प्रकाश का साक्षात् स्वरूप जमदग्नि है। ज्योति की ज्योति से नेत्रों को ज्योतित कर लेना जमदग्नित्व है। रसना का ऋषि है परमेष्ठी। विशेष धारणीय को इष्ठा कहते हैं। परम इष्ठा को सतत धारण करता ऋषि परमेष्ठि है। रस आपः है। आप का उत्कृष्ट रूप जल है। जीवन को लालसा है जिसकी वह जल है। परिशुद्धि स्वाद जल है। सर्वरस परमेष्ठ रसना को अभीष्ट है। नासिका का ऋषि है गोतम। इन्द्रियों को कहते हैं गो। गो में जो अन्त्य है वह है गोतम। ये सप्त ऋषि सध जाएं इन्द्रियों में, यम-नियम सध जाएं जीवन में, आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार स्व-स्वास्थ्य-संस्थान स्वस्थन करे तथा धारणा हो ध्येयतम की। ध्यान हो एक का। समाधि सिद्धि में परमात वत्स मैं परमोत सर्व ब्रह्म अगाओ अहसास हर पल।


वेद ज्ञान विद् होकर मानव को विद्वान् करते दिव्य देह के माध्यम से जीवन में उतरता समाज को सुखी समृद्ध करता है। वैदिक शरीर का स्वरूप त्रि-रूपी, पंच-कोषीय, सप्त-ऋषिमय, चतुर्वेदी, अमृत आवृत्तिमय, अष्ट-चक्रीय, नव-द्वारीय, अविजेय सुख पुरी के रूप में है। यह ”तन्तुं-तन्वम्“ सप्त धातु निर्मित इड, भर्ग, अर्च, वर्च, सह, मन्यु, बल, ओज, तेज से भरा हुआ है। अहंकार उद्भूत आत्मा, चित् उद्भूत स्व, धी उद्भूत एका, बुद्धि उद्भूत ध्येय, मन उद्भूत चतुर्वेदी शिव भाव, वाक् उद्भूत ऋचाएं, प्राण उद्भूत खं-ब्रह्म (इन्द्रिय-दिव्य), श्रोत्र उद्भूत आकाश ब्रह्म, त्वक् उद्भूत वरुण ब्रह्म, चक्षु उद्भूत तेज ब्रह्म, रसना उद्भूत रस-आप-ब्रह्म, नासिका उद्भूत पृथ्वी ब्रह्म यह वास्तविक ब्रह्माण्ड प्रारूप है। वेद ऐसे अमृत सुखं शरीर का आरोहण करने का आदेश देता है। यह शरीर ही आश्रम अर्थात सतत श्रमशील है।


त्रि-रूपी अर्थात 1) स्थूल शरीर, 2) सूक्ष्म शरीर तथा 3) कारण शरीर या शरीर में 1) पदार्थ व्यवस्था या मटेरियल डामेन, 2) शक्ति व्यवस्था क्वांटम डामेन तथा 3) वर्च व्यवस्था या वर्चुअल डामेन का लघु विश्वरूप है। पंच कोष अर्थात इसमें 1) अन्नमय, 2) प्राणमय, 3) मनोमय, 4) 1. विज्ञानमय, 2. ज्ञानमय, 3. ज्ञाप्तिमय, 4. विज्ञाप्तिमय, 5. प्रज्ञाप्तिमय, 6. सज्ञाप्तिमय, 7. अव्याकृत, 8. चैतन्य, 9. स्व, 10. आत्म, 11. संकल्प, 12. अव्याहत, 5) आनन्दमय कोष। चतुर्वेदी अर्थात मन जिसमें चारों वेद पिरोए गए हैं। सप्त ऋषि अर्थात 1) वाक्, 2) प्राण, 3) श्रोत्र, 4) त्वक्, 5) चक्षु, 6) रसना, 7) नासिका हैं। ये सप्त ऋषि प्रतिहिता शरीरे हैं या शरीर में दिव्यत्व भरकर इसका अतिहित करनेवाले हैं। अमृत आवृत्तिमय अर्थात शरीर में प्रकटते अनन्त भाव ब्रह्म वेदामृत से आवृत है। आठ चक्र अर्थात 1) सतोमय मूलाधार, 2) तपोमय स्वाधिष्ठान, 3) जनोमय मणिपूरक, 4) महोमय अनाहत, 5) स्वोमय विशुद्धि, 6) भुवोमय ललना, 7) भू मय आज्ञा और 8) मूर्धाक्षरमय मूर्धन्य। इसमें ही अष्ट ब्रह्म चक्र 1) गुहा- विऋजान, 2) सत्य- सहस्रान, 3) देव- देवान, 4) ब्रह्मन-ब्रह्म रन्ध्रान, 5) अक्षर- अक्षरान, 6) सोम- सोमान, 7) आग्नेय- आग्नान तथा 8) ओऽम् ओऽमान है। यह शरीर ही सप्त धातु स्वमय है। 1) रस- सुहविषा, 2) रक्त- सुओषा, 3) मांस- सुकोषा, 4) मेद- सुनिग्धा, 5) अस्थि- सुस्फुरा, 6) मज्जा- सुउत्सर्जा, 7) शुक्र- सुतेजा। इन सप्त धातुओं से निर्मित तन्तुं-तन्वम् शुभ ही शुभ भरा है। तन्तुं-तन्वम् जीनेटिक कोड कहा जा सकता है। इससे सूक्ष्म स्तर 1) अणु-अणु – सु समन्वयम्, 2) परमाणु-परमाणु – सुसमत्वम्, 3) घूर्णान-घूर्णान (क्वार्क-क्वार्क) – सुअक्षन, 4) अल्पसत्व-अल्पसत्व – सुप्रकम्पन, 5) महासत्व-महासत्व – सुतरंगन, 6) अयन-अयन – सुशक्तिमय और 7) अयनार-अयनार – सुविततम है।


यह शरीर का तेजोमय, वेदोमय स्वरूप है जो आधुनिक विज्ञान समन्वित है। इससे मानव अस्तित्व विदि होता है। अर्थात ज्ञानमय, विचारमय, लाभमय तथा सत्तामय। ऐसा मानव शारीरिक, आत्मिक, सामाजिक उन्नतिमय होता है। ज्ञान, विचार, लाभ, सत्ता बांटने या देने ही देने- विसर्जित करने का नाम दिव्य देह है। विदि है देह। इस देह में त्रयी ज्ञान-कर्म-उपासना सिद्ध मानव ब्रह्म तेज से तपता है। ऐसे विदि मानव संगठन सूक्त जीते दिव्य समाज की रचना कर सकते हैं।


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