मन के पाप को दूर करने का संकल्प

मन के पाप को दूर करने का संकल्प

एक साधु महात्मा थे। एक गांव के समीप वे अपनी झोपड़ी बनाकर रहते थे। नित्य सत्संग करना, ईश्वर का ध्यान करना एवं उपदेश से लोगों का आचरण पवित्र करना उनकी दिनचर्या का भाग था। उनका दैनिक नियम था कि वह भिक्षा लेने गांव के घरों में जाते थे। एक दिन भिक्षा देने वाली माता जी ने महात्मा जी से  भिक्षा के साथ उपदेश सुनाने का आग्रह किया। महात्मा जी ने अपने कमंडल में भिक्षा ग्रहण करते हुए कहा की आपको कल उपदेश सुनाएंगे। अगले दिन महात्मा जी अपने भिक्षा लेने हेतु उन्हीं माता जी के घर पहुंच गए। माता जी जैसे ही कमंडल में भिक्षा डालने लगी तो उन्होंने देखा की कमंडल पहले से ही मिटटी से भरा हुआ हैं। उन्होंने महात्मा जी से कहा कि यह कमंडल तो पहले से ही भरा हुआ और गन्दा है। इसमें भिक्षा कैसे डाले?  महात्मा जी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया। माता यही उपदेश तो मैं देना चाहता था। आज समाज के हर व्यक्ति के मन में पाप, परनिंदा, लोभ, मोह रूपी मैल भरी पड़ी हैं। जब तक वह मन कि मैल को दूर नहीं करेगा।  तब तक उसमें यथार्थ ज्ञान का प्रवेश कैसे होगा? जब तक यथार्थ ज्ञान नहीं होगा। तब तक श्रेष्ठ आचरण कैसे होगा? जब तक श्रेष्ठ आचरण नहीं होगा। तब तक सुख की प्राप्ति कैसे होगी? उन माता ने महात्मा जी का उत्तम उपदेश देने के लिए धन्यवाद दिया एवं उत्तम कार्यों को करने का संकल्प किया।
वेद में मन के मैल अर्थात पाप आदि को दूर हटाने का उपाय बताया गया हैं। अथर्ववेद 6/45/1 में प्रार्थना करने वाला व्यक्ति संकल्प लेते हुए लिखता है ओ मन के पाप ! तू परे चला जा क्यूंकि तू निन्दित बातों को पसंद करता है। तू मुझसे दूर चला जा। मैं तुझे नहीं चाहता हूँ। मैं तेरा एकांत जंगल में वृक्षों के मध्य त्याग करता हूँ। मेरा मन गृहस्थ आश्रम के कर्तव्य अर्थात परिवार के उचित पालन में स्थिर हो। इस मंत्र में मन में पाप आदि बुरे कार्यों को मन से निकालने के लिए पहले उनसे घृणा करने, फिर उनका त्याग करने और अंत में जीवन के कर्तव्यों का पालन करने का सन्देश दिया गया हैं।


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