मचली बिजली घन अंबर में , नव गूँज विराट दिगंतर से !

||दुर्मिल सवैया ||


मचली बिजली घन अंबर में , नव गूँज विराट दिगंतर से !
हिमखंड अहं सब टूट रहे , सरिता बहती मधु अंतर से !
चपला चमके चित चंचल में, शत निर्झर नेह निरंतर से !
मृदु शीतल छाँह विशुद्ध यहाँ, गुरु चेतन रूप समंदर से !!


जग खेल अनंत विखंडित है , प्रतिकूल दिवा रजनी रहती !
रस रूप सुगंध पराग भरी , मधु मोह सनी लहरें बहती !
सब छूट रहे अब चित्र नये , जड़ चेतन की कथनी कहती !
तल भूधर जीवन बोध भरा , गुरु ज्ञान भरी किरणें बसती !!


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