कृपण और उदार के दिल के भावों का प्रवाह
कृपण और उदार के दिल के भावों का प्रवाह
कृपण व्यक्ति धनी, श्रद्धालु और सज्जन होकर भी समय पर सेवा-सहायता के कर्त्तव्य से वञ्चित रह जाता है। हृदय तो उसका चाहता है कि बड़ी सेवा करे । पर ढंग सोचता रहता है और अवसर खोजता रहता है और इसी में समय खो बैठता है। परन्तु उदार हृदय व्यक्ति निर्धन साधारण-स्थिति का होता हुआ भी समय आने पर बिना सोचे-समझे और अवसर ढूंढेतुरन्त हो अपनी सेवा प्रस्तुत कर देता है । हृदय के दो मार्ग हैं-एक भाव और दूसरा बहाव (प्रवाह) का शुभ हृदय, कृपण और उदार में भाव का मार्ग तो बराबर है-पर बहाव (प्रवाह) भिन्न-भिन्न । कृपण का प्रवाह संकुचित (तंग), और उदार का खुला होता है । कृपण बाद में पछताता है और लज्जित होता है। उदार पहले भी प्रसन्न और पोछे भी प्रसन्न रहता है । इससे निर्धन का धन नहीं घटता-और धनी का धन नहीं बढ़तासेव्य के हृदय में निर्धन उदार मान और आदर का पात्र बन जाता है और धनी कृपण मान और आदर नहीं पाता।