किसके हैं सावरकर !
किसके हैं सावरकर !
30 दिसम्बर को अहमदाबाद में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद से सावरकर ने गाँधी के कथन (मुसलमानों को साथ लिये बिना स्वराज्य मिलना असम्भव है) की निन्दा करते हुये मुसलमानों को चेतावनी दी- “यदि तुम साथ आते हो तो तुमको साथ लेकर, यदि तुम साथ नहीं आते तो तुम्हारे बिना अकेले ही और यदि तुम हमारा विरोध करोगे तो तुम्हारे उस विरोध को कुचलते हुये हम हिन्दू देश की स्वाधीनता का युद्ध निरन्तर लड़ते रहेंगे।"
हैदराबाद के निजाम ने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किये तथा सभी धार्मिक कृत्यों पर रोक लगा दी। हिन्दुओं का बलपूर्वक धर्मान्तरण किया जाने लगा तो दिसम्बर 1938 में महात्मा नारायण स्वामी व स्वामी स्वतंत्रानन्द जी के नेतृत्व में आर्य समाज ने निजाम के विरुद्ध आन्दोलन कियासावरकर तुरन्त शोलापुर पहुँचे और घोषणा की- "इस आन्दोलन में आर्य समाज को अपने को अकेला अनुभव नहीं करना चाहिये। हिन्दू महासभा अपनी पूरी शक्ति से आर्य समाज के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर निजाम की हिन्दू विरोधी नीति व उसके जघन्य क्रिया कलापों को चकनाचूर करके ही चैन की सांस लेगी।" हिन्दू समाज के विभिन्न संगठनों ने इस आन्दोलन में सहयोग किया। इसी के परिणाम स्वरूप 19 जलाई 1939 को निजाम ने नागरिक संघर्ष को मान्यता दी। द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। 9 अक्टूबर को वायसराय लिनलिथगो ने सावरकर को वार्तालाप के लिये आमंत्रित किया। सावरकर दिल्ली गये तो वायसराय ने उनसे पूछा कि विश्वयुद्ध के सम्बन्ध में उनकी क्या नीति है? सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में बताया- "क्रान्तिकारी होने के नाते मैं देश के सैनिकीकरण के पक्ष में हूँ, मैं इसमें देश का हित समझता हूँ। देश के भीतर और देश की सीमाओं पर हिन्दू सैनिकों की टुकड़ियाँ यदि रहें तो यह देश के हित में होगा। इसमें ही हिन्दुओं का हित भी निहित है।"
वायसराय पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा और बाद में एक पत्रकार सम्मेलन में उसने कहा- “सावरकर अनेक वर्ष तक अण्डमान में कारागार में यातना झेलते रहे हैं किन्तु इससे न तो उनका तेज क्षीण हुआ और न ही उनके क्रान्तिकारी विचारों में किसी प्रकार का परिवर्तन हुआ है। इस द्वितीय विश्व युद्ध के प्रश्न पर भी वे सर्वप्रथम भारतीय हित को सम्मुख रखते हुये ही कुछ बात करते हैं।"
1940 में उधम सिंह ने जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के खलनायक ओडवायर को मार डाला, तो सावरकर ने उधमसिंह का अभिनन्दन करते हुये कहा- “सशस्त्र क्रान्तिवादी देशभक्तों द्वारा अंग्रेज अधिकारियों की बलि लेते ही ब्रिटिश राजसत्ता डर के मारे काँप उठती है। कुछ देशभक्त वीरों को फाँसी अवश्य मिलती है किन्तु ब्रिटिश साम्राज्य हिल जाता है। भारत के लोकमत को अपने अनकल बनाने के लिये अंग्रेजों द्वारा कुछ प्रशासनिक सुधारों का चारा डाल दिया जाता है। हमें इससे सन्तुष्ट नहीं होना चाहिये।"
दिसम्बर 1940 में मदुरै में आ.भा. हिन्दू महासभा के अधिवेशन में सावरकर ने गर्जना की- “हिन्दुओं को अहिंसा, चरखा व सत्याग्रह के प्रपंच से सावधाना रहना चाहिये। सम्पूर्ण अहिंसा की नीति आत्मघाती नीति है, एक बड़ा भारी पाप है। युवकों को इस समय अधिकाधिक संख्या में सेना में भर्ती होना चाहिये। सैनिकीकरण से शस्त्र विद्या की जानकारी होगी। इस विद्या में पारंगत होकर हमारी कौम वीर व अपराजेय बन सकती है।"
देश के मतदाताओं को सावधान करते हुये सावरकर ने कहा- “कांग्रेसी नेता चुनाव में तुम्हारे मत लेने के बाद फिर पाकिस्तान का समर्थन करके देश के साथ विश्वासघात करेंगे।"
अमेरिका के विख्यात पत्रकार लुई फिशर ने पाकिस्तान के विषय में सावरकर से भेंट की और पूछा- “आपको मुसलमानों को अलग देश देने में आपत्ति क्या है?" वीर सावरकर ने तपाक से उत्तर दिया- “अमेरिका के लोग भारी माँग के बावजूद नीग्रो लोगों के लिये अलग नीग्रोस्तान क्यों नहीं बना देते?" लुई फिशर ने चौंककर सावरकर के चेहरे को देखा और बोला- "देश का विभाजन करना राष्ट्रीय अपराध है।" सावरकर बोले- "इसीलिये हम भारत विभाजन की योजना को राष्ट्र विरोधी मानते हैं और उसका डटकर विरोध कर रहे हैं। जबकि मुस्लिम लोग उस देश को ही नापाक मानते हैं और उसके टुकड़े करना चाहते हैं।" यह सुनकर लुई फिशर सहम गये|
प्रबुद्ध पाठक! सावरकर में देशभक्ति व वीरता का तेज आयु पर्यन्त (26 जनवरी 1966) बना रहा। उनके जीवन का क्षण-क्षण व कण-कण राष्ट्र को समर्पित था। इसीलिए जब वीर सावरकर रावलपिण्डी पधारे तो आर्य समाज के महान् संन्यासी स्वामी आत्मानन्द जी ने विचारा- “वीर सावरकर ने अपने राष्ट्र के लिये वह कर्त्तव्य निभाया है, जिसका स्मरण करते ही मानव नतमस्तक हो जाता है।" यह विचारकर वे अपने अंग्रेजी विद्यालय के सब विद्यार्थियों को लेकर सड़क पर आ गये। सड़क के दोनों ओर विद्यार्थियों को खड़ा कर दिया और स्वयं वीर सावरकर की कार को हाथ के संकेत से रोक लिया। वीर सावरकर की जय-जय ध्वनि से आकाश गूंज उठा। स्वामी जी ने वीर शिरोमणि सावरकर को पुष्पमाला पहनाकर अपनी श्रद्धा अर्पित की और चरण स्पर्श किये। एक महान् योगी संन्यासी ने किसी श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थी के चरण-स्पर्श किये हों, सम्भवतः संसार ने यह पहली बार देखा होगा। जबकि दूसरी तरफ महात्मा गाँधी से लेकर राहुल गाँधी तक कांग्रेस ने वीर सावरकर का अपमान करने का कोई अवसर नहीं छोड़ाकभी अंग्रेजों से माफी माँगने वाला 'कायर' व कभी गाँधी जी का 'हत्यारा' प्रचारित किया जाता है। जबकि वीर सावरकर ने 20 नवम्बर 1948 को अपने अदालती बयान (52 पृष्ठ) में कहा था कि गाँधी जी की हत्या के मामले में उन्हें जान-बूझकर फँसाया गया। यह ठीक है कि वे गाँधी जी के विचारों से कभी सहमत नहीं रहे और भविष्य में भी कभी सहमत न होंगे, परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि वे हत्या जैसे जघन्य कर्म पर उतर आतेन्यायाधीश ने भी 10 फरवरी 1949 को सावरकर को निरपराध घोषित कर ससम्मान मुक्त कर दिया थाफिर बिना प्रमाण अपराधी घोषित करने वाले ये कौन से न्यायाधीश पैदा हो गये? मई 2014 के चुनाव से पूर्व हमारे तुम्हारे (महात्मा गाँधी हमारे - सावरकर तुम्हारे) का नारा भी सुनने को मिला। तो क्या वीर सावरकर ने केवल आर.एस.एस. या भाजपा के लिये कार्य किया और गाँधी जी ने केवल कांग्रेस की भलाई के लिये कार्य किया? यदि हां, तो फिर वे राष्ट्र पिता क्यों कहलाए? यह ठीक है कि आर.एस. एस. से जुड़ी भाजपा वीर सावरकर का सम्मान करती है पर वह गाँधी जी का अपमान तो नहीं करती। देशभक्त तो सभी देशवासियों के लिये आदरणीय होते हैं। यदि भाजपा ने लगभग 100 वर्ष से अपमानित या उपेक्षित होने वाले वीर सावरकर के बलिदान का सम्मान किया तो इसका यह अभिप्राय नहीं कि सावरकर संघी हो गये। सावरकर ने जब जेल की यातनाएँ (काले पानी आदि में) झेली थीं, तब न तो भाजपा थी और न संघ (आर.एस.एस.) था। केवल देश था और उसकी स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करने वाली कांग्रेस (नरम व गरम दल) थी। सावरकर और संघ में क्या सम्बन्ध रहा है, इसे जानने के लिये अतीत का अवलोकन करते हैं।
मुस्लिम लीग की तरह हिन्दू महासभा 1908 ई० में पंजाब में बनी थी। मदनमोहन मालवीय, स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द आदि ने समय-समय पर इसकी अध्यक्षता की। सभा का उद्देश्य हिन्दुत्व का उद्धार करना था। इसी प्रकार 1925 ई० (विजयादशमी) को डॉ० मुजे, डॉ० हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक क्लब की नींव डाली। बाद में इस संगठन को आर.एस.एस. का नाम दिया गया। इसे आगे बढ़ाने में हिन्दू महासभा ने भरपूर सहयोग किया। दिल्ली में इसकी पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन में हिन्दू सभाई नेता प्रा० रामसिंह की देख-रेख में हुई। लाहौर में शाखा हिन्दू सभाई नेता डॉ० गोकुलचन्द नारंग की कोठी में लगी। जिसका संचालन भाई परमानन्द के दामाद धर्मवीर जी करते थे। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा हिन्दू महासभा कार्यालय में महासभाई नेता श्री मेहरचन्द खन्ना की देख-रेख में लगती थी। वीर सावरकर के बड़े भाई बाबाराव सावरकर ने 1931 ई० में अपने 'तरुण हिन्दू महासभा' के 8000 सदस्य आर.एस.एस. में मिला दिये। वीर सावरकर के सहयोगी व शुद्धि प्रचारक संत पाचलेगावरकर ने अपने 5000 सदस्य वाले संगठन मुक्तेश्वर दल को आर.एस.एस. में मिला दिया। 10 मई 1937 को वीर सावरकर नजरबन्दी से मुक्त हो गये। उसी वर्ष वे हिन्दू महसभा के अध्यक्ष चुने गये। हिन्दू महासभा एवं आर.एस.एस. के संस्थापकों ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू राष्ट्र को अपनी बुनियादी विचारधारा के रूप में अपनाया। परन्तु कांग्रेस ने सदैव यही प्रचार किया कि वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा साम्प्रदायिक एवं मुस्लिम विरोधी है
1939 ई० में सावरकर तीसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये। कलकत्ता अधिवेशन में हुये सचिव पद के चुनाव में महाशय इन्द्रप्रकाश (80 वोट) चुने गये तो एम.एस. गोलवल्कर (40 वोट) को इस हार से इतनी चिढ़ हो गई कि वे अपने कुछ साथियों सहित हिन्दू महासभा से दूर हो गये। अकस्मात् जून 1940 में डॉ० हेडगेवार की मृत्यु हो गई और उनके स्थान पर श्री गोलवल्कर को आर.एस.एस. प्रमुख बिना दिया गया। डॉ० हेडगेवार कई बातों में मतभेद होते हुये भी वीर सावरकर का सम्मान व सहयोग करते थे पर श्री गोलवल्कर के मन में उतना आदर सम्मान का भाव नहीं था, अत: उन्होंने सभा व सारवकर के हिन्दू युवकों को सेना में भर्ती होने के लिये प्रेरित करने वाले अभियान की आलोचना करनी शुरू कर दी अर्थात् वे कांग्रेस की लकीर पर चल पड़े।
डॉ० हेडगेवार जहाँ प्रगतिशील व आर्य समाज की विचारधारा से प्रभावित थे, वहीं गुरु गोलवल्कर रुढ़िवादी, अन्धविश्वासी व स्वामी विवेकानन्द से प्रभावित थे। साथ ही उनकी विचारधारा थी- “जो मैं कहता हूँ वही ठीक है, दूसरों को इसे मानना ही चाहिये। जो नहीं मानता वह हमारा नहीं है।" 1938-39 के हैदराबाद सत्याग्रह की तरह 1942 के “भारत छोड़ो आन्दोलन" में भी संघ के सदस्यों ने व्यक्तिगत रूप में बड़ी संख्या में भाग लिया पर संघ प्रमुख ने इससे दूरी बनाये रखी। अक्टूबर 1944 में वीर सावरकर ने नई दिल्ली में सभी हिन्दू संगठनों और कुछ विशेष हिन्दू नेताओं की एक सभा बुलाई, जिसमें यह विचार करना था कि मुस्लिम लीग की ललकार व माँगों का सामना कैसे किया जाये। इतनी आवश्यक सभा में भी श्री गोलवल्कर जी नहीं पहुँचे। सावरकर के अंतिम दिनों (मृत्सु 16 मार्च 1945) में जब गुरु गोलवल्कर उनसे मिले तो उन्होंने आंचल फैलाकर गुरु जी से संघ-महासभा के बीच बढ़ते हुये वैमनस्य को समाप्त कराने का अनुरोध किया। गुरु जी ने उन्हें वैसा करने का आश्वासन तो दिया पर किया कुछ नहीं।
1946 में अंग्रेज सरकार ने केन्द्रीय विधान सभा के चुनाव घोषित कर दिये। कम्यूनल अवार्ड के अन्तर्गत तब हिन्दू मुसलमानों के लिये अलग-अलग सीटें होती थीं। कांग्रेस ने लगभग सभी सीटों पर प्रत्याशी खड़े किये, मुस्लिम लीग ने सभी मुस्लिम सीटों पर और हिन्दू महासभा ने कुछ हिन्दू सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये। हिन्दू महासभा से नामांकन भरने वाले प्रत्याशियों में आर.एस.एस. के कुछ स्वयंसेवक भी थे। जब नामांकन भरने की तिथि बीत गई, तब गुरु जी ने उन्हें अपना नाम वापस लेने के लिये कहा। परिणाम स्वरूप मुस्लिम लीग को 93% मुस्लिम वोट मिले, कांग्रेस को 84% हिन्दू वोट मिले और हिन्दू महासभा को मात्र 16% हिन्दू वोट मिले। मिले। अतः अंग्रेजों ने कांग्रेस को हिन्दू व लीग को मुस्लिम प्रतिनिधि मानकर पाकिस्तान की माँग पर विचार करने के लिये बुलाया (जून-जुलाई 1947)। हिन्दू महासभा को पूछा ही नहीं। संघ के विश्वासघात ने महासभा को निराश कर दिया और सात लाख युवा स्वयंसेवकों वाले संघ ने भारत विभाजन को रुकवाने के लिये कोई कदम नहीं उठाया। अखण्ड भारत के लिये संघर्षरत हिन्दू महासभा अकेली पड़ गई। हिन्दुओं का राजनैतिक नेतृत्व करने वाले दल के रूप में हिन्दू महासभा पहले ही थी पर उसका समर्थन न कर गुरु जी ने 1951 ई० में जनसंघ पार्टी खड़ी करवा दीफिर भी कोई वीर सावरकर को संघी बताये तो यह मानसिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है?
जहाँ तक नाथूराम गोडसे की बात है, वे पहले आर.एस.एस. के सक्रिय सदस्य थे। 1930 में रत्नागिरी में वीर सावरकर से मिले, उनसे व उनके साहित्य से प्रेरणा ली। जब वीर सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने, तो गोडसे हिन्दू महासभा में शामिल हो गये। इसी के अन्तर्गत हिन्दू सेना बनाई व हैदराबाद सत्याग्रह में बढ़चढ़ कर भाग लिया और वर्ष भर जेल काटी। यद्यपि गोडसे ने सावरकर के साहित्य की तरह गाँधी जी का साहित्य भी खून ध्यान से पढ़ा था पर गाँधी जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों से गोडसे का खून खौल उठा। वे अपने मित्र आप्टे के साथ गाँधी जी की सभा में जाकर उग्र विरोध प्रदर्शन करने लगे कि गाँधी जी को प्रार्थना सभा चलाना मुश्किल हो गया। भंगी कॉलोनी में तो गाँधी जी पिछले दरवाजे से ही निकल गये। जब वीर सावरकर को इस घटना का पता लगा तो उन्होंने गोडसे को बुलाकर खूब डाँटा और समझाया। गोडसे और उनके मित्रों को वीर सावरकर के ये विचार अच्छे या सन्तोषजनक नहीं लगे। उन्होंने तय कर लिया कि वे हिन्दू जाति के हित को सावरकर के नेतृत्व से अलग कर लेंगे। अपने भविष्य की योजनाओं और कार्यक्रमों के विषय में उनसे किसी प्रकार का परामर्श नहीं लेंगे। गोडसे ने अपने सहयोगी मित्रों को यह भी कह दिया कि वे अपनी भावी योजनाओं का कोई भेद सावरकर को न देंवीर सावरकर ने 15 अगस्त 1947 को भगवे के स्थान पर तिरंगे झण्डे (चक्र वाले) को राष्ट्रीय ध्वज मानकर फहराने की बात कही तो गोडसे ने इस बात का विरोध किया। एक समय था जब नाथूराम गोडसे वीर सावरकर के कार्यों के तथा उसके प्रखर व्यक्तित्त्व के दीवाने थे, लेकिन कांग्रेस के प्रति समर्थन की भावना देखकर गोडसे के मन में सावरकर की नीतियों के प्रति घोर विरक्ति हो गई। गोडसे हिन्दु महासभा के मुख्य पत्र 'अग्रणी' के सम्पादक थे। उसमें भी उन्होंने कांग्रेस को समर्थन देने की नीति का विरोध किया तथा हिन्दू पराने तथा वृद्ध नेताओं के कार्यों की आलोचना शुरू कर दी। नाथूराम ने निर्णय ले लिया था कि वे अपनी आगे की कोई योजना वीर सावरकर या अन्य किसी पुराने नेताओं को नहीं बताएंगे। इसी पर चलते हुये उन्होंने गाँधी का वध किया। इसमें वीर सावरकर या संघ की भूमिका कहाँ रही? लगभग 70 वर्ष बाद भी 'गाँधी हत्या' की आड़ में बलिदानी वीर सावरकर को बदनाम करने वाले लोग क्या बतायेंगे कि यदि सावरकर इस हत्या के दोषी थे, तो तत्कालीन न्यायाधीश द्वारा उन्हें ससम्मान मुक्त किये जाने पर नेहरू सरकार ने इस फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती क्यों नहीं दी? और जब पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री लियाकत अली अप्रैल 1950 को दिल्ली आये, तब सावरकर ने किसकी हत्या दी थी, जो उन्हें लगभग 3 मास बन्दी बनाकर रखा और बाद में एक वर्ष राजनीति में भाग न लेने की शर्त पर रिहा किया? जब तक नेहरू जी जीवित रहे वीर सावरकर को स्वतंत्रता सेनानी होने की पेंशन भी नहीं दी और स्वयं 1955 ई० में ही 'भारत रत्न' का सम्मान भी ले गये। तभी तो कहना पड़ता है-
सत्ता के मद में सत्य छुपाया, देशभक्त बदनाम किये
इतिहासों में यह लिखवाया, हमने ही विजय संग्राम किये॥
फिर क्यों कोई 'केसरे हिन्द' बना, मौके पर आन्दोलन बन्द किये?
देशभक्त चढ़े फाँसी पर, ये समझौतों में प्रबन्ध किये॥
किनके कारण नेताजी ने, कांग्रेस का पद छोड़ा था।
किसी महत्त्वाकांक्षा ने, भारत दो हिस्सों में तोड़ा था॥
कौन बोला था - सुभाष के खिलाफ, मैं चलूँ तलवार उठाने को
अंग्रेजों का मित्र बना कौन, भारत की गद्दी पाने को॥
किसने बोये 'तीन सौ सत्तर' कांटे, कश्मीरी केसर क्यारी में।
कौन-कौन हुये थे शामिल, देश के प्रति गद्दारी में॥
सदा के लिये सूरज की किरणें, छुपा सकते हैं मेघ नहीं।
सत्य जानना चाहती जनता, क्यों नेहरू ने उठाई तेग नहीं॥
फिर भी वे 'भारत रत्न' बने, पर बलिदानी पेंशन को तरसे।
वीर जवाहर जिन्दाबाद हुए, कायर लिख गये सावरकर से॥
समय ने करवट बदली है, न सत्य छुपेगा छुपाने से
जन गण मन से नहीं मिटेगा, पट्टी से नाम मिटाने से॥