कर्म-उपासना ज्ञान की आवश्यकता कब तक ?
कर्म-उपासना ज्ञान की आवश्यकता कब तक ?
मनुष्य स्वतन्त्र-विचार होकर अपने को ऊंचा मान लेता है । एवं किसी भक्ति उपासना की आवश्यकता नहीं समझता । और कभी मनुष्य सबसे प्रेमभाव रखता हुआ-सब सम्प्रदायों से सच्चाई ग्रहण करने के विचार का बन जाता है तो वह अपने आपको कर्म-पद से ऊँचा मान लेता है । कर्म की आश्यकता नहीं समझता, या कम समझने लग जाता है । यह भूल है। कर्म तो तब तक नहीं त्यागना चाहिए जब तक उसे क्षुधा लगती है और उसकी निवत्ति वह आवश्यक जानता है । या कोई भी शुभेच्छा मन में रहती है।
भक्ति तब तक नहीं त्यागनी चाहिए-जब तक प्रभु से युक्त नहीं हुआ।
ज्ञान की प्राप्ति तो तब तक आवश्यक है-जब तक प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान (विशुद्ध) नहीं हो जाता तथा परमात्मा सब वस्तुओं में दृष्टिगोचर नहीं होने लगता। ज्ञान अनन्त है । अतः इसका त्याग तो मुक्ति में भी नहीं होता। भक्ति समाधि में समाप्त हो जाती है तथा कर्मशरीर की समाप्ति के साथ समाप्त होता है, पहले कभी नहीं।