ज्योतिष - कितनी झूठी ?

ज्योतिष - कितनी झूठी ?


      ऋषि दयानन्द ने महाभारत काल के बाद देश के पतन के दो प्रमुख कारणों में फलित ज्यांतिष बताया व माना है। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में सोमनाथ मन्दिर पर मुस्लिम आक्रमण में पराजय का कारण भी मुख्यतः फलित ज्योतिष एवं जड़ मूर्तिपूजा को माना है व इसे सिद्ध भी किया है। वर्तमान में भी हम अपने परिचितों से ज्योतिष विषयक नाना प्रकार की बातें सुनते रहते हैं। कुछ दिन पूर्व चण्डीगढ़ के हमारे एक पारिवारिक मित्र परिवार के युवा दम्पत्ति ने हमें बताया कि उन्होंने अपनी 3-4 वर्षीय पुत्री की जन्मपत्री किसी ज्योतिषी को दिखाई तो उन्हें कुछ ग्रह दोष बताकर उन्हें चिन्तित कर दिया। हमने उन्हें आश्वस्त किया कि वह ज्योतिषी की नकारात्मक बातों को भूल जायें और भविष्य में किसी भी ज्योतिषी के कुचक्र में न पडेहमने उन्हें अपनी पत्री के भोजन छादन एवं आवश्यकता पड़ने पर औषध सेवन की सलाह दी और ईश्वर की उपासना और उस पर विश्वास रखने को कहा।


    देहरादून उत्तराखण्ड की राजधानी है। यहां के अधिकांश लोग फलित ज्योतिष में विश्वास रखते हैं। अपने बच्चों के विवाह पर वर व वध की जन्मपत्री ज्योतिषी को दिखाई जाती है। यदि वह अनुकूल सलाह देते हैं तो विवाह होता है अन्यथा नहीं। हमारे एक साथी ने एक बार बताया था कि उन्हें जहां अपने विवाह के लिये कन्या पसन्द आती है वहां जन्मपत्री न मिलने से विवाह नहीं हो पाता और जहां जन्मपत्री मिलती है वहां उन्हें लड़की पसन्द नहीं आती। इस प्रकार उनके अनेक वर्ष इसी बात में बीत गये थे। ज्योतिष विषयक इस प्रकार की बातें सामने आती रहती हैं। वेदों के अद्वितीय विद्वान् ऋषि दयानन्द और उनका स्थापित आर्यसमाज कार्य-कारण सिद्धान्त, कर्म-फल सिद्धान्त, वेद प्रमाण और तर्क-युक्ति से सिद्ध बातों को मानता है। फलित ज्योतिष की न तो ईश्वरीय व्यवस्था कर्म-फल सिद्धान्त से संगति लगती है, न यहां कोई कार्य-कारण सिद्धान्त के आधार पर सुख-दु:ख तथा विवाह-संबंधों की बात होती हैं और न ही इसका वेद-प्रमाण होता है। यदि ज्योतिषी वास्तव में सत्य सिद्धान्तों पर आधारित होता तो इस महत्त्वपूर्ण व उपयोगी ज्ञान व विषय का वेदों में अवश्य उल्लेख होता जैसा कि अन्य सभी विषयों का है। अतः फलित ज्योतिष की भविष्यवाणियां असत्य एवं आधारहीन होती हैं। दर्शन शास्त्र के विवेचन के आधार पर कहा जाता है कि ईश्वर जीवों के कर्मों की अपेक्षा से त्रिकालदर्शी है। जीव वा आत्मा कर्म करने में स्वतन्त्र होने से शुभ व अशुभ सभी प्रकार के कर्मों को अपनी इच्छा से कर सकता है। उसमें परमात्मा की ओर से रुकावट नहीं होती। यदि रुकावट होती तो उससे उसकी स्वतन्त्रता भंग होने से उसे किसी कर्म का दण्ड नहीं दिया जा सकता था। जीव की स्वतन्त्रता के सिद्धान्त के आधार पर ईश्वर जीवात्मा के भविष्य के किसी कर्म व उससे सम्बन्धित सुख-दु:ख के विषय में पहले से नहीं जान सकता। हां, जीव जो कर्म कर चुका है, उसके आधार पर उसे क्या फल मिलना है, यह ईश्वर जानता है। ईश्वर जीवात्मा के किस कर्म का फल कब देगा यह ईश्वर अपने विधान के अनुसार कर करता है, जिसे जानने का मनुष्य के पास कोई साधन नहीं है। योगियों के लिये इसे कुछ-कुछ जानना सम्भव हो सकता है।


      फलित ज्योतिष विषयक कुछ भ्रान्तियों को दूर करने के लिये हम वैदिक विद्वान् महात्मा गोपाल स्वामी सरस्वती जी का एक लेख- “ज्योतिष-कितनी झूठी?" प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि जिन लोगों ने सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, निराकार, ईश्वर को देवी, देवताओं के रूप में साकार बनाकर, फिर उसकी मर्तियां बनाकर मन्दिरों में कैद कर दिया, वे भला ग्रहों और उपग्रहों को कैसे छोड़ सकते थे। पृथिवी के भार से कुछ कम या अधिक भारी ग्रह अब प्रत्येक मनुष्य के ऊपर विराजते हैं कोई ग्रह अन्य ग्रह को मित्र भाव से देखता है और कोई शत्रु भाव से। कोई-कोई आतंकवादी बलवान ग्रह अपना प्रकोप वा शक्ति दिखाने लग जाता है और परेशान होता है बेचारा इन ग्रहों के भार को ढोने वाला (मनुष्य)


      महाभारत काल के पश्चात् जो दर्दशा ईश्वर और धर्म की हुई, वही ज्योतिष की हुई। 'ज्योतिष' शब्द भविष्य में होने वाली बात के ज्ञान के लिये रूढ़ हो गया। यह ज्योतिष का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा जब इसमें हजार-पांच सौ वर्ष पूर्व 'जातक', 'ताजिक', 'मुहूर्त', 'प्रश्न', 'शकुन', अपशकुन', 'दिशाशूल', हाथ-पैर की रेखाओं, तिलों तथा विविध बातों के शुभाशुभ फल लोभी पण्डितों द्वारा जोड़ दिये गये। ग्रहों, उपग्रहों के नाम ले-लेकर, व्यक्ति-व्यक्ति में भविष्य के प्रति पहले भय, भ्रान्ति, आशंका पैदा करना, फिर उसके निराकरण के लिये उपाय प्रस्तावित करना, तदुपरान्त अनुष्ठान करवाना कुछ लोगों का व्यवसाय बन गया। जैसे, जिनको केवल घण्टा, घड़ियाल और शंख बजाना आता था, जो पढ़ाई के नाम पर शून्य थे, वे मन्दिरों के पुजारी बन गये, उसी प्रकार मामूली शिक्षा प्राप्त व्यक्ति जो शारीरिक श्रम नहीं करना चाहते थे, वे जंत्रियों तथा पत्र-पत्रिकाओं के सहारे से, दूसरों के भविष्य को बताने और बनाने वाले बन गये। प्राचीन काल में संस्कृतज्ञ , वेद-वेदांग और दर्शन शास्त्रों के विद्वान् ही ब्रह्माण्ड के रहस्यों का साक्षात्कार करने के लिये ज्योतिष में प्रवृत्त होते थे, अब वे लोग, जिनके पास करने को कोई कार्य नहीं है, ज्योतिष से व्यवसाय के रूप में धनोपार्जन के लिये प्रवत्त होते हैं. और तो और, झोला-छाप व्यक्ति, पक्षियों (तोता, मैना, चिड़ियों) तथा पशुओं (बन्दर, भालू,) द्वारा गारण्टी की भविष्यवाणी करते हैं। अज्ञान, अविद्या और अंधविश्वास के ग्रस्त मानव समाज की हर समस्या (जैसे बीमारी, शादी, सन्तान, मुकदमा, रोजगार, सट्टा, व्यापार, शत्रु को हानि पहुंचाना, परीक्षा में सफलता आदि) का समाधान इन ज्योतिषियों के पास है, अतः धन्धा खूब पनप रहा है। इस बावरी दुनियां के ऐसे लोगों के लिये ही दाद सन्त ने कहा था-


    दाद् दुनियां बावरी, मढ़िया (मजार) पूजन जाय।


जो आप निपूते मर गये, तेतों पुत्तर मंगन जाय


      कोई नहीं सोचना चाहता कि जो व्यक्ति अपना भविष्य नहीं बना सकता, वह ज्योतिषी बनकर मात्र कलाकारी से दूसरों का भविष्य कैसे संवार देगा?


     जी हां, ज्योतिष अब न विद्या है, न विज्ञानयह कला बनकर रह गई है। जो जितनी ज्यादा कलाकारी दिखावे और अपने चमचों/भक्तोंप्रशंसकों द्वारा जितनी अधिक विज्ञापनबाजी (Publicity ) कर ले वा करवा ले, वह उतना ही बड़ा ज्योतिषी। कलाकार जो कुछ भी मंच पर या पर्दे पर दर्शकों के लिये करता है, उसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार आज जो भी मारन, ताड़न, ग्रहों के शमन के लिये यंत्र-तन्त्र-पत्थर आदि दिये जा रहे हैं, वह सब मिथ्या, पाखण्ड और झूठ है। ज्योतिष आज यथार्थ विज्ञान (Exact Science) से गिरकर संभाव्यता सिद्धान्त (Theory of Probabilityपर आश्रित हो गई है। फलित ज्योतिष में सबसे बडी कला है, द्वि-अर्थी बात कहना, जिससे ज्योतिषी जी की 'चित्त भी मेरी' और 'पट्ट भी मेरी' की स्थिति बराबर बनी रहे।


      'घुणक्षरन्याय' और 'स्वभाविक सम्बन्ध जन्य ज्ञान' के आधार पर यदि ज्योतिषी जी की बताई कोई बात परिस्थितिवश सही भी हो जावे, तो उसको अधिक महत्त्व देना न्यायोचित न होगा क्योंकि 50 प्रतिशत अनुमान, यदि अनुभवों पर आधारित हैं तो हरेक व्यक्ति के (चाहे वह ज्योतिषी हो या न हो) सही ही सिद्ध होंगेयही संभाव्यता सिद्धान्त (Theory of Probability) है।


      हमने स्वामी गोपाल स्वामी सरस्वती जी के वैदिक सिद्धान्तों के अनुकूल विचारों को प्रस्तुत किया है। इसका उद्देश्य अपने बन्धुओं के ज्योतिषी पर मिथ्या आस्था व भ्रमों को दूर करना है। आर्यसमाज विगत 144 वर्षों से अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर करने का काम कर रहा है। तथापि समाज से यह मिथ्या बातें दूर नहीं हो पा रही हैं। ज्ञानियों व विद्वानों का कार्य असत्य को दूर करने व उसका खण्डन करने सहित सत्य के प्रचार के लिये उसका मण्डन करना है। आर्यसमाज की स्थापना ही सत्य मान्यताओं से युक्त ईश्वरीय ज्ञान वेद के प्रचार के लिये हुई है। वही कार्य वह विगत डेढ़ शताब्दी से कर रहा है। आर्यसमाज जो काम करता है, वह ईश्वर की आज्ञा का पालन है। विश्व के लगभग 80-90 प्रतिशत लोग फलित ज्योतिष से दूर रहते हैं और अच्छा व सुखी जीवन व्यतीत करते हैं जो हमें भी अपने जीवन से सभी अविद्याजन्य परम्पराओं यथा जड़-पूजा और फलित ज्योतिष आदि को दूर करना होगा। इसके स्थान पर वेदों की सत्य व कल्याणकारी शिक्षाओं को अपने जीवन में प्रमुख स्थान देना होगा। इसी से हमारा सर्वांगीण हित व कल्याण होगा और हमारा देश व समाज उन्नति को प्राप्त होगा। ओ३म् शम्


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।