जीने की हकीकत
जीने की हकीकत
जो सोच भी सोच सकी न कभी
वो सोच ही आज ये सोचती है,
कि जीने के लिये तो दुनिया में मरने की जरूरत होती है।
जो जीकर न जी पाये वो मरकर भी क्या जी पायेंगे,
मरकर के जी पाना ही तो जीने की हकीकत होती है।।
जीवन-जीवन रटते हैं सब ये तो बस बहता पानी है,
जो रुके एक पल भी न कभी इसकी बस यही कहानी है।
जीवन को जीवन कहने का गर मोल है कुछ तो इतना ही,
मृत्यु जो इक सच्चाई है…जीवन की बदौलत होती है।।
मरकर के जी……..
क्या मिला और क्या छूट गया? क्या जुड़ा और क्या टूट गया?
बुलबुला एक पानी का था बन ना पाया और फूट गया।
हँसना-रोना, जगना-सोना ये खेल रंगमंचों के हैं,
क्या मृत्यु से बढक़र भी दुनिया में कोई दौलत होती है।।
मरकर के जी……..
जिस मौत के बाद जिन्दगी हो उस मौत को क्यूँ हम मौत कहें?
जिस मौत के बाद ही मुक्ति हो उस मौत को क्यँू हम मौत कहें?
दु:खों से छुड़ाती है मृत्यु, ईश्वर से मिलाती है मृत्यु,
मरकर के जी………
हे धर्मवीर! हे आर्यपुत्र! हे कु लभूषण निर्-अभिमानी!
हे वेदविज्ञ! हे जगत् रत्न! हे दयानन्द के सेनानी!
सिखलाकर जो तुम चले गये, बतलाकर जो तुम चले गये,
जनजीवन के नवजीवन की ये ही तो जरूरत होती है।।
मरकर के जी पाना ही तो….