गृहस्थाश्रम को स्वर्ग का साधन समझें



 



       गृहस्थ और सुख? यह तो कुछ अनोाी बात है। इसमें इतने दुःख हैं कि आरभ से ही इसे दुःखों का घर समझा जाता है। आधुनिक काल में जबकि हमने अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को बहुत बढ़ा रखा है तो कुछ बात यथार्थ प्रतीत होने लगती है, परन्तु यदि गभीरता पूर्वक इस पर विचार किया जाये तो महर्षि मनु की यह बात सही है कि गृहस्थ आश्रम व्यवस्था की दृष्टि से ज्येष्ठ तथा श्रेष्ठ सिद्ध है।


      गृहस्थाश्रम तो लोक और परलोक दोनों को सुधारने का एक माध्यम है। इस माध्यम को मानव ने अपने स्वार्थ, आलस्य, प्रमाद, अतिवासना तथा लोभ और मर्ूाता से बिगाड़ रखा है। हम स्वयं ही जंजीरे गढ़ते हैं और अपने हाथ-पाँव में बाँध लेते हैं और फिर चिल्लाने लगते हैं कि हम बाँधे गये। गृहस्थाश्रम का तो इसलिए निर्माण किया गया ताकि लबी जीवन यात्रा में नर या नारी अकेला थक न जाये। लबी यात्रा में साथी साथ हो तो यात्रा सरल बन जाती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन पाँचों को ठीक मर्यादा में रखने का सुन्दर साधन गृहस्थ है।


     महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे आजीवन ब्रह्मचारी विरले ही होते हैं, उन्होंने भी गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ कहा है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में बताया है कि-




    1. यथा नदी नदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।



   तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।


-मनु. 6/90


      जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं हो जाते। वैसे ही गृहस्थ के आश्रम में सब आश्रम स्थिर रहते हैं, बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।



  1. यथा वायुं समाश्रित्य, वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः।


   तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्व आश्रमाः।।


-मनु. 3/77


      जैसे वायु के आश्रय पर सब प्राणी हैं वैसे गृहस्थाश्रम सब आश्रमों का आश्रय दाता है।



  1. यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्।


   गृहस्थेनैव धार्य्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही।


– मनु. 3/78


       जिससे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देकर गृहस्थ ही धारण करता है इसीलिए गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है।



  1. स संधार्य्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।


    सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।


– मनु. 3/76


       जो अक्षय, मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो, वह प्रयत्न से गृहाश्रम धारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बल इन्द्रिय, भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने योग्य नहीं है, उसको अच्छे प्रकार धारण करे।


      इसलिए जितना कुछ व्यवहार संसार में है, उसका आधार गृहाश्रम है, जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहाँ से हो सकते? जो कोई गृहस्थ आश्रम की निन्दा करता है, वही निन्दनीय है, जो प्रशंसा करता है, वह प्रशंसनीय है। परन्तु तभी गृहस्थाश्रम में सुख होता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हो।


       प्राचीन इतिहास बतलाता है कि ऋषि-मुनि गृहस्थाश्रम में रहकर सबका पथ प्रदर्शन करते थे और हमारे पूर्वज नारी जाति का अत्यधिक मान करते थे, तभी तो कहा हैः-


यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।


      जहाँ नारियों का समान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। महर्षि मनु ने तो यहाँ तक कह दिया है कि नारी ही घर की शोभा है, जहाँ गृहिणी नहीं, वह घर ही नहीं। जहाँ पति और पत्नी का एक दूसरे से प्यार है, वही घर स्वर्ग समान है। जहाँ पुत्र-पुत्रियाँ आज्ञाकारी हों, वही घर स्वर्ग समान हैं। स्वर्ग किसी ऊपर या नीचे के लोकों का नाम नहीं है, यदि इसी गृहस्थ में आप सुखी हैं तो आप इस जीवन काल में भी 'स्वर्गीय' अर्थात् सुखी बन सकते हैं। स्वर्गीय का अर्थ है- स्वर्ग में रहना, जहाँ प्रत्येक प्रकार का सुख, समृद्धि, सन्तोष हो, उसी का नाम स्वर्ग है और ऐसे स्वर्ग की प्राप्ति गृहस्थाश्रम के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है। इसलिए यह धारणा कि गृहस्थी सुखी नहीं हो सकता और गृहस्थ तो दुःखों का घर है, यह गलत है। गृहस्थ ही एक ऐसा आश्रम है जिसके माध्यम से धर्म, अर्थ, काम और अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति संभव है।


     विवाह के समय वर-वधू का सात कदम एक साथ चलना भी इसी भाव का प्रतीक है। जहाँ अन्न शारीरिक बल, धन, सुख, सन्तान प्राप्ति, चारों तरफ की प्राकृतिक परिस्थिति का अनुकूल होना कहा है, वहाँ सातवाँ कदम रखते हुए वर कहता है-


3म् सखे सप्तपदी भव विष्णुस्त्वा नयतु


पुत्रान् विन्दावहै, बहूंस्ते सन्तु जरदष्टयः


      अर्थात् हम सदा साथ रहें, हममें मैत्री भाव रहे, तेरा मन मेरे मन के अनुकूल हो, हम दोनों मिलकर पुत्र-पुत्रियों को प्राप्त करें और वे वृद्धावस्था तक जीने वाले हों।


      शास्त्रों में गृहस्थ को एक आश्रम कहा गया है। यह एक मंजिल है। मंजिल तक पहुँचने के लिए खड़े रहने से काम नहीं चलता, मंजिल की तरफ चलना पड़ता है। सप्तपदी का अभिप्राय यही होता है कि वर-वधु को इस बात की प्रतीति कराई जाती है कि गृहस्थाश्रम आराम से बैठे रहने का नाम नहीं है। इस आश्रम के कुछ उद्देश्य हैं, प्रयोजन हैं। इन प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए अलग-अलग नहीं, एक साथ चलना होगा, कदम से कदम मिलाकर चलना होगा, तभी वे इस आश्रम के उद्देश्य को पा सकेंगे। तभी तो ऋग्वेद में कहा है-


3म् समञ्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ।


सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ।।


       हम दोनों पति-पत्नी निश्चयपूर्वक तथा प्रसन्नतापूर्वक यह घोषणा करते हैं कि हम दोनों के हृदय जल के समान सदा शान्त रहें, जैसे प्राणवायु हमको प्रिय है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे के साथ प्रसन्न रहेगें, जैसे धारण करने वाला परमात्मा सबमें मिला हुआ, सब जगत् को धारण करता है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे को धारण करते रहेंगे।


गृह्यसूत्र में लिखा हैंः-


3म् यदेतद् हृदयं तव तदस्तु हृदयं मम्।


यदिदम् हृदयं मम तदस्तु हृदयं तव।।


    जो तेरा हृदय है, वह मेरा हृदय हो जाये और जो मेरा हृदय है, वह तेरा हृदय हो जाये।


3म् मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु।


मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्।


     हमारा एक-दूसरे के साथ श्रेष्ठ व्यवहार हो। हमारा चित्त एक-दूसरे के अनुकूल हो। प्रजापति ने हमें एक-दूसरे के साथ नियुक्त किया है। हमें इसका सफल निर्वाह करना है।


     विवाह का उद्देश्य तो जीवन के आदर्श को पूर्ण करने के लिए एक साधन मात्र है। जीवन का आदर्श, सब प्राणियों में अपनापन अनुभव करना है। इसलिए विवाह में पति-पत्नी में मित्रता, सखा-भाव जरुरी है, नहीं तो विवाह का प्रधान उद्देश्य पूरा नहीं होता।


    स्त्री-पुरुष में तो प्रेम स्वाभाविक है, इसे सीखने के लिए किसी विद्यालय में नहीं जाना पड़ता। स्त्री तथा पुरुष के इसी स्वाभाविक प्रेम को प्राणिमात्र तक ले जाने का एक कठिन काम को आसान बनाने का प्रयत्न गृहस्थाश्रम द्वारा किया जाता है। इसी प्रेम का, मैत्री भाव का आगे विस्तार करना है। विवाह में यही प्रेम, सखा भाव ही एक ऐसा तत्व है जिसे संकुचित क्षेत्र से निकालकर हम विस्तृत क्षेत्र में विकसित करना चाहते हैं।


     गृहस्थाश्रम में अपनेपन का केन्द्र अपने से हटकर दूसरों में जाना प्रारभ हो जाता है, स्वार्थ का अंश पर्दे की ओट में चला जाता है और उसकी जगह परार्थ का भाव सामने आने लगता है। अतः यह बड़ी जिमेदारी का आश्रम है।


    आत्मा के अपने आदर्श लक्ष्य तक पहुँचने का उसके पूर्ण रूप में विक सित होने का यही उपाय है। ब्रह्मचर्यावस्था 'स्व' की उन्नति से प्रारभ होती है। इस आश्रम में 'स्व' या 'अपने' आपका उत्थान प्रमुख होता है, ब्रह्मचारी अपने इर्द-गिर्द ही घूमता है परन्तु जब वह अपने 'स्व' को दृढ़ बना चुका होता है, तब उसे अपनी आत्मा को अधिक विकसित करने को कहा जाता है तो वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। ब्रह्मचर्य आश्रम अपने तक सीमित होता है परन्तु गृहस्थ आश्रम अपने से हटकर सन्तानों तक विस्तृत होता ही है। वह पूरे समाज में अपने आपको विस्तृत कर देता है। गृहस्थाश्रम आत्मिक विकास की एक सीढ़ी है यह सभी आश्रमों का पालक, पोषक एवं सहयोगी है। तभी तो इस आश्रम को स्वर्ग प्राप्ति का माध्यम माना गया है। महर्षि मनु की स्पष्ट घोषणा है-


अनेन विप्रो वृत्तेन वर्तयन् वेदशास्त्रवित्।


व्यपेत कल्मषो नित्यं ब्रह्मलोके महीयते।।


      अर्थात् – जो वेद शास्त्रों को पढ़ने वाला गृहस्थ शास्त्रोक्त कर्त्तव्यों का पालन करता है वह पाप रहित जीवन स्वर्ग अथवा मोक्ष के आनन्द को प्राप्त करता है।



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