गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय (वर्णाश्रम-व्यवस्था)
गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय
वर्णाश्रम-व्यवस्था
जिस प्रकार गृहस्थ अपने विवाह वर्णानुक्रम से करते हैं, वैसे ही वर्ण-व्यवस्था भी गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार होनी चाहिये। जो उत्तम विद्या स्वभाव वाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है और ऐसा ही आगे भी होगा। जो नीच भी उत्तम वर्ण-कर्म-स्वभाव वाला होवे तो उसकोाी उत्तम वर्ण में और जो उत्तम वर्णस्थ हो के नीचे काम करे, तो उसको नीच वर्ण में अवश्य गिनना चाहिये। यजुर्वेद के इकत्तीसवें अध्याय के ग्यारहवें मन्त्र-''ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीद्''का अर्थ भी यही है कि जो पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुय-उत्तम हो, वह ब्राह्मण; बाहुबल-वीर्य जिसमें अधिक हो, वह क्षत्रिय; कटि के अधोभाग और जानु के उपरिस्थ भाग का ऊरु नाम है, जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरु के बल से जावे-आवे, प्रवेश करे, वह वैश्य और जो पग के अर्थात् नीचे अङ्ग के सदृश मूर्खत्वादि गुण वाला हो वह शूद्र है। यही बात मनु ने भी कही है कि शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण कर्म स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो जाये और वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण कर्म और स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाये। इसी प्रकार क्षत्रिय या वैश्य कुलोत्पन्न भी ब्राह्मण या शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है। चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो, वह-वह उसी वर्ण में गिनी जावे। इस विषय में अनेक प्रमाण हैं।