गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय  (गृहस्थ का महत्त्व)

गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय 


गृहस्थ का महत्त्व


        इस प्रकार गृहस्थाश्रम (विवाह करके गृहस्थ बनना) बहुत महत्त्वपूर्ण आश्रम है। कुछ लोग पूछा करते हैं-यह आश्रम सब से छोटा है-अथवा बड़ा? हम तो यही कहते हैं कि अपने-अपने कर्त्तव्य कर्मों में सब बड़े हैं, परन्तु जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते रहते हैं, जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं। बिना इसके किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रमों को दान अन्नादि देकर गृहस्थ ही धारण करता है, इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहलाता है। जो मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता है, वह प्रयत्न से गृहाश्रम को धारण करे।


        जितना कुछ व्यवहार संसार में है, उसका आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति न होती- फिर ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम कहाँ से हो सकते?


         जो गृहस्थाश्रम की निन्दा करता है, वही निन्दनीय है- जो प्रशंसा करता है, वही प्रशंसनीय है।


       परन्तु स्मरण रहे यह पुण्य गृहस्थाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने योग्य नहीं है, और गृहस्थाश्रम में सुखाी तभी होता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न,विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिये गृहस्थाश्रम के सुख का मुय कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह है। समावर्तन, विवाह और गृहस्थाश्रम के विषय में यह संक्षिप्त शिक्षा लिखी गयी है।


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