गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय (गृहस्थ के कर्त्तव्य)

गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय


      गृहस्थ के कर्त्तव्य


  गृहस्थ के कर्त्तव्य इस भाँति गृहस्थाश्रम में स्त्री-पुरुष परस्पर प्रेमपूर्वक रहें। बुद्धि-धनादि की वृद्धि करने वाले शास्त्रों को नित्य सुनें और सुनावें। यथाविधि दिन और रात्रि की सन्धि में परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए। पितृयज्ञ भी गृहस्थ का कर्त्तव्य कर्म है। श्रद्धा और भक्ति भाव से विद्यमान माता-पिता आदि पितरों की सेवा करना ही पितृयज्ञ और श्राद्धतर्पण है। परम विद्वानों, आचार्यादि की सर्वप्रकार से सेवा करना ही ऋषि तर्पण है। वास्तव में माता-पिता, स्त्री, भगिनी, सबन्धी आदि तथा कुल के अन्य कोई भद्र पुरुष वा वृद्ध हों, उन सबको अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यानादि देखकर अच्छी प्रकार तृप्त करना, जिससे उनकी आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहे-यही श्राद्ध और तर्पण है।


          चौथा 'वैश्वदेव' यज्ञ है। जब भोजन सिद्ध हो जाये, तब उसमें से खट्टा, लवणान्न और क्षार युक्त को छोड़कर घृत-मिष्ट युक्त अन्न लेकर मन्त्रों से आहुति दे दें तथा कुछ भाग पत्ते या थाली में भी मन्त्रों से आहुति देते समय रखता जाय। यदि कोई अतिथि हो तो उसको दे दें, नहीं तो अग्नि में ही छोड़ देवें। इसी प्रकार किसी दुःखी प्राणी अथवा कुत्ते, कव्वे आदि के लिये भी छः भाग अलग रख दें- पश्चात् उनको दे दिये जायें। अतिथि यज्ञ भी आवश्यक है। यदि अकस्मात् कोई धार्मिक , सत्योपदेशक, सबके उपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला पूर्ण विद्वान्, परमयोगी, संन्यासी गृहस्थ के यहाँ आ जाये तो उसका यथाविधि सत्कार करना, खान-पानादि से सेवा-शुश्रूषा करना परम कर्त्तव्य है। समयानुसार गृहस्थ और राजादि भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य हैं, परन्तु पाखण्डी, वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करने वालों का वाणी मात्र से भी सत्कार न करें-क्योंकि इनका सत्कार करने से ये वृद्धि को पाते हैं- संसार को अधर्मयुक्त करते हैं और अपने सेवकों को भी अविद्या रूपी महासागर में डुबो देते हैं। इन पाँचों महायज्ञों का अत्युत्तम फल होता है। धर्म की वृद्धि होकर संसार में सुख का संचार होता है। गृहस्थ को अपनी दिनचर्या का भी विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।


         रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात से उठे। आवश्यक कार्य से निवृत्त हो, धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों का निदान और परमात्मा का ध्यान करे। अधर्म का आचरण कभी न करे। अधर्मात्मा मनुष्य मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड और विश्वासघातादि कर्मों से पराये धन और पदाथरें को लेकर बढता है, धनादि ऐश्वर्य, यान, स्थान, मान-आदि प्रतिष्ठा कोाी प्राप्त कर लेता है, परन्तु शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, जैसे जड़ से कटा हुआ वृक्ष। इसलिये गृहस्थों को उचित है कि पक्षपात रहित होकर सत्य का सदैव ग्रहण करें, असत्य का परित्याग करें। न्याय रूप वेदोक्त धार्मिक मार्ग ग्रहण करें तथा अन्यों को भी इसी प्रकार की शिक्षा दिया करें। धर्म से धन को कमायें और ऐसे धन को सद् पात्र में ही व्यय करें, अपात्र में धन का दुरुपयोग न करें। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि तपरहित हैं, अशिक्षित हैं और दूसरों के धन पर ही अपना दाँत लगाये रखते हैं, उसी पर पलते हैं, ये तीनों प्रकार के अपात्र ही हैं। वे स्वयं भी डूबते हैं और अपने दाताओं को भी साथ डुबा लेते हैं। इस प्रकार गृहस्थ इस लोक और परलोक का सदा ध्यान रखें।


          धर्म का सञ्चय धीरे-धीरे करता जाये, क्योंकि धर्म ही के सहारे से दुस्तर दुःख सागर को जीव तर सकता है। गृहस्थ जीवन में- विवाह होने के पश्चात् स्त्री के साथ पुरुष और पुरुष के साथ स्त्री बिक चुके होते हैं। जो उनके पारस्परिक हाव-भाव, नख-शिखाग्र-पर्यन्त जो कुछ भी हैं- वह एक दूसरे के आधीन हो जाते हैं, अतः स्त्री वा  पुरुष एक दूसरे की प्रसन्नता बिना कोई व्यवहार न करें। इनमें बड़े अप्रियकारक काम व्यभिचार, वेश्या-परपुरुषगमनादि हैं। इनको छोड़के अपने पति के साथ स्त्री और स्त्री के साथ पति सदा प्रसन्न रहें।





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