गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय (परस्पर-सहमति)

गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय


रस्पर-सहमति


          विवाह लड़के-लड़की की प्रसन्नता के बिना न होना चाहिये, क्योंकि एक दूसरे की प्रसन्नता से विवाह होने में विरोध बहुत कम और सन्तान उत्तम होती है। अप्रसन्नता के विवाह में नित्य क्लेश ही रहता है। विवाह में मुय प्रयोजन वर और कन्या का है, माता-पिता का नहीं, क्योंकि जो उनमें परस्पर प्रसन्नता रहे तो उन्हीं को सुख और विरोध में उन्हीं को दुःख होता है, इसलिये जैसी स्वयंवर की रीति आर्यावर्त्त में परपरा से चली आती थी, वही उत्तम है।


         जब तक सब ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा और अन्य आर्य लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ कर ही स्वयंवर विवाह करते थे, तब तक इस देश की सदा उन्नति होती रही। जब से यह ब्रह्मचर्य से रहित विद्या की पढ़ाई और बाल्यावस्था में पराधीन अर्थात् माता-पिता के आधीन विवाह होने लगे, तब से क्रमशः आर्यावर्त्त देश की हानि होती चली आयी। इससे इस दुष्ट काम को छोड़ कर सज्जन लोग पूर्वोक्त प्रकार से स्वयंवर विवाह किया करें। विवाह वर्णानुक्रम से करें।


        कईलोग आपत्ति करते हैं कि विवाह-बंधन में केवल दुःख भोगना पड़ता है, इसलिए यह क्यों न हो कि जिसके साथ जिसकी प्रीति हो, तब तक मिले रहें, प्रीति छूट जाने पर एक-दूसरे को छोड़ देवें। परन्तु इस प्रकार करने को हम पशु-पक्षी का व्यवहार मानते हैं, मनुष्यों का नहीं। जो मनुष्यों में विवाह का नियम न रहे, तो गृहस्थाश्रम के अच्छे-अच्छे व्यवहार नष्ट-भ्रष्ट हो जायें। कोई किसी की सेवा भी न करे और महा व्यभिचार बढ़ कर सब रोगी, निर्बल और अल्पायु हो शीघ्र ही मर जायें । भय-लज्जा भी न रहे। वृद्धावस्था में कोई सेवा न करे। कोई किसी के पदार्थों का स्वामी या दायभागी भी न हो सके  और न ही किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकाल पर्यन्त रहे। इन दोषों के निवारणार्थ विवाह ही होना सर्वथा योग्य है।


       यह भी स्मरण रहे कि एक समय में एक ही विवाह उचित है, परन्तु समयान्तर में अनेक विवाह भी हो सक ते हैं। जिस स्त्री या पुरुष का मात्र पाणिग्रहण संस्कार हुआ हो और संयोग न हुआ हो-अर्थात् अक्षतयोनि स्त्री और अक्षतवीर्य पुरुष हो, उनका ऐसी ही अन्य स्त्री वा पुरुष के साथ पुनर्विवाह होना चाहिए। 


 

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