गृहस्थाश्रम ही स्वर्ग और नर्क है

गृहस्थाश्रम ही स्वर्ग और नर्क है



      संसार में समय-यापक अधिक और समय-पारखी कोई बिरला होता है। समय श्वासों का बना हुआ है। एक-एक श्वास का मूल्य किसी के पास चुकाने के लिए नहीं। जिसने श्वास को समझा उसी ने प्रभु और शुभ कर्मों में अपना सारा जीवन बिताया । गृहस्थी आजकल समय-यापन कर रहे हैं। इसलिए उनका सुधार नहीं होता और वे किसी का सुधार नहीं कर सकते । गृहस्थी स्त्री और पुरुष तो एक आदर्श हैं। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी को तो देर भी लग जाय पर गृहस्थी अपने सम्बन्ध-धर्म को समझ लेवे तो शीघ्र प्रभुसत्ता का भान कर लेवे । स्त्री अपने पुत्र से बड़ा प्रेम करती है और उसे नयनों का तारा और हृदय का दुलारा कहती है पुरुष और स्त्री अपने गुरु को भी पूज्यदेव और बुद्धि का स्वामी कह देंगे परन्तु प्राण का दर्जा तो स्त्री केवल अपने पतिदेव को देती है, कहती है-'मेरे प्राण-प्यारे ! मेरे प्राणनाथ !' संसार में सबसे प्यारी वस्तु एक प्राण ही है। और प्राण नाम प्रभु का है। यदि स्त्री सचमुच ऐसा समझ लेवे कि पति मेरा प्रभु और प्रारण है तो भूलकर भी उसका निरादर और तिरस्कार न करे। उसे कभी अप्रसन्न-रुष्ट न करे। इसलिए विवाह के समय सबसे पहले यही प्रार्थना करती हैं 'प्र में पतियानः पन्था कल्पतां शिवा अरिष्टा पतिलोक गमेयम् ।' हे प्रभो ! मेरा वही मार्ग हो जो मेरे पतिदेव का है। किसलिए ? शिवा, वह मार्ग कल्याणकारी है । अथवा कल्याण के लिए (सुख पाती हुई) जिससे अरिष्टा(निर्विघ्न) मैं पतिलोक को (पतियों के पति परमदेव परमात्मा के लोक को) प्राप्त कर सकूँ । वह स्त्री कभी मुक्त नहीं हो सकती जो पति को पति नहीं समझती। जो त्याग और प्रेम बिना किसी दिखावे के स्त्री पुरुष में होता है वह और किसी में नहीं हो सकता। और मुक्ति के लिए त्याग और प्रेम ही साधन है । परन्तु आजकल गृहस्थियों का त्याग और प्रेम बिना ज्ञान के है। ज्ञानरहित त्याग और प्रेमरहित त्याग गृहस्थाश्रम को नरक और जंजाल बना रहा है ।


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