गृहस्थ-सन्त – पं. भगवान सहाय
गृहस्थ-सन्त – पं. भगवान सहाय
पं. भगवान सहाय, जिनको देश-विदेश में कोई नहीं जानता, समाचार पत्रों में जिनका नाम नहीं मिलता, स्थानीय स्तर पर भी किसी संगठन, संस्था के प्रधान या मन्त्री के रूप में जिनकी कोई पहचान नहीं, फिर भी उनके बड़प्पन में कोई कमी नहीं थी। जो कोई उनके सपर्क में आया, उनकी दयानन्द, वेद, ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा, स्वभाव की सरलता, व्यवहार की सहजता, हृदय की उदारता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था।
पं. भगवान सहाय आर्यसमाज, अजमेर के मन्त्री ताराचन्द के सपर्क से आर्यसमाजी बने। स्वाध्याय से उन्होंने अपने विचारों को दृढ़ बनाया, उसे जीवन में उतार कर एक आदर्श जीवन के धनी बने। दुकान पर ग्राहक उनकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर आता था। सामान लेने से पहले उसे वेद, ईश्वर का स्वरूप, आर्यसमाज के सिद्धान्तों का परिचय लेना पड़ता था, तब उसे उसका सामान मिलता था।
यज्ञ के प्रति उनकी आस्था से वे लोग परिचित हैं, जिन्होंने कभी उनकी दुकान से हवन सामग्री खरीदी है। ऋषि उद्यान के सभी समारोहों के लिये उनका सामग्री दान उदारता से होता था। दैनिक यज्ञ भी उनकी सामग्री के बिना सभव नहीं थे। ऋषि उद्यान उनके लिये प्रिय और आदर्श स्थान था, जिसको वे मृत्युक्षण तक भी नहीं भूले। वे स्वयं ऋषि मेले के ऋग्वेद पारायण यज्ञ में उपस्थित नहीं हो सकते थे, अपने दोहित्र विवेक को भेजकर अपनी अन्तिम आहुति यज्ञ में डलवाई।
गुरुकुल के ब्रह्मचारियों और आर्य विद्वानों तथा साधु-सन्तों को भोजन कराने, स्वागत-सत्कार करने में उन्हें अपार सुख मिलता था। मृत्यु के समय भी आश्रमवासियों और समारोह के अतिथियों के लिए भोजन कराने का कार्य नहीं भूले। अन्तिम इच्छा के रूप में उन्होंने अपनी अन्त्येष्टि वैदिक रीति से करने और अपनी शरीर कीास्म को ऋषि उद्यान की मिट्टी में डालने का निर्देश अपने परिवार के लोगों को दे दिया था, साथ ही आदेश देनााी नहीं भूले कि अन्तिम संस्कार के बाद कोई पाखण्ड मेरे नाम पर मत करना। शान्ति यज्ञ के साथ सब क्रियायें समाप्त समझना।
पं. भगवान सहाय विद्वानों की श्रेणी में नहीं आते थे, परन्तु उनका सैद्धान्तिक ज्ञान इतना दृढ़ और स्पष्ट था कि अच्छे विद्वानों की बुद्धि भी काम नहीं करती। लगभग चालीस वर्ष पूर्व जूलाई का मास था, मैं अध्यापन के लिये अपने महाविद्यालय के लिये जा रहा था, मेरा मार्ग उनकी दुकान के सामने से होकर जाता था, जैसे ही में उनकी दुकान के सामने से निकला, उन्होंने मेरा नाम लेकर पुकारा, मैं रुका, वे दुकान से नीचे उतरकर आये, कहने लगे- पण्डित जी! वर्षा का समय है, वर्षा नहीं हो रही है, किसान व्याकुल हैं, वृष्टि-यज्ञ कराओ, जिससे वर्षा हो। मैंने उत्तर दिया- पण्डित जी! वृष्टि-यज्ञ वैज्ञानिक प्रक्रिया है, मैंने यज्ञ कराया भी और वर्षा नहीं हुई तो आप कहेंगे कि पण्डित ने झूठ बोला- यज्ञ से वर्षा होती है। इस पर भगवान सहाय जी का उत्तर में कभी नहीं भूला। उस उत्तर ने मेरे पूरे जीवन की समस्या का समाधान कर दिया, वे कहने लगे- पण्डित जी! कभी प्रार्थना करने वाला स्वयं प्रार्थना स्वीकार करता है क्या? अर्जी लगाना हमारा काम है, मंजूर करना, न करना ईश्वर का काम है। यज्ञ तो हमारी प्रार्थना है। पण्डित जी का उत्तर इतना सटीक था कि मैं उन्हें जीवन में कभी मना ही नहीं कर सका।
यज्ञ से उनका इतना प्रेम था कि जब कोई उनसे यज्ञ के विषय में पूछता तो वे कहते थे कि यज्ञ जड़-चेतन दोनों का भोजन है। हम मनुष्यों को भोजन कराते हैं तो केवल मनुष्यों की तृप्ति होती है, परन्तु यज्ञ से जड़-चेतन दोनों की तृप्ति होती है, इससे दोनों में पवित्रता आती है। आज उनसे सामग्री लेकर यज्ञ करने वालों की यही चिन्ता सता रही है- क्या यज्ञ की शुद्ध सामग्री हमको मिलती रहेगी? जिसकी आशा हम उनके उत्तराधिकारियों से कर रहे हैं।
पं. भगवान सहाय जी की सहनशीलता अद्भुत थी। उनके साथी, परिवारजन, ग्राहक, सेवक कोई भी किसी कारण से कष्ट हो जाय, क्रोध करे, कठोर शद कहे, वे कभी किसी से प्रभावित नहीं होते थे। उसे बड़े शान्त और सहज भाव से सुन लेते थे, मुस्करा देते थे। ऐसे समाज सेवक का अपने मध्य से जाना, किसको दुःखद नहीं लगेगा। परन्तु परमेश्वर की व्यवस्था और प्रकृति के नियम तथा मनुष्य की नियति कौन बदल सका है। हम दिवंगत आत्मा की शान्ति, सद्गति की प्रार्थना और परिवारजनों को इस दुःखद परिस्थिति को सहन करने की, सामर्थ्य की कामना परमेश्वर से करते हैं। वेद कहता है-
– डॉ. धर्मवीर