दोस्त हो तो ऐसा


 


दोस्त हो तो ऐसा




            नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और शौत्तेन्द्रो कुमार घोष बचपन में सहपाठी थे। वे कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च स्कृूल में पढ़ते थे। फिर स्कॉॅटिश चर्च कॉलेज में पढ़े थे, एक साथ। सुभाष बोस रहते थे एलगिन रोड पर अपनी आलीशान दो मंजिली कोठी में और शौत्तेन्द्रो घोष भवानीपुर मोहल्ले में रॉय स्ट्रीट पर दो नबर बँगले में। दोनों के घर पास-पास थे। घोष रग्बी और फुटबाल के कैप्टेन थे। सुभाष और उनके बड़े भाई शरत अपने पड़ोसी के खेल पर जी-जान से फिदा थे।


           पढ़ाई-लिखाई खत्म होने पर सुभाष और शौत्तेन्द्रो दोनों आई.सी.एस. (इण्डियन सिविल सर्विस) के इतहान में बैठे। दोनों अच्छे नबरों से पास हुए और ट्रेनिंग के लिए इंग्लैण्ड भेजे गए। विदेश में सुभाष को भारत और भारतवासियों को गुलाम बनाए रखने वाला अंग्रेजों का रवैया भाया नहीं। वे तो बस स्वतन्त्र भारत की ही तस्वीर साकार होते देखना चाहते थे। आई.सी.एस. की नौकरी का चक्कर छोड़छाड़ सीधे लौटे भारत और अपने प्यारे, मगर गुलाम देश की आजादी के लिए राजनीति में कू द पड़े। सुभाष ने युगों से सोई हुई जनता को जगाने के कठिन कार्य का संकल्प लिया।


           शौत्तेन्द्रो और सुभाष का सपर्क पूरी तरह टूट चुका था, लेकिन जब भी शौत्तेन्द्रो अखबारों की सुर्खियों में अपने सुभाष की उपलधियों, बुलन्दियों और भारतीय और भारतीय जन-मानस पर उनका अमिट प्रभाव देखते-पढ़ते, तो उनका हृदय आनन्द से खिल उठता था और वे उनके प्रति नतमस्तक हुए बिना न रहते थे।


          अब इस समय भीषण युद्ध के दौरान शौत्तेन्द्रो को अपने बर्मी एजेंटों द्वारा नेताजी सुभाष के बारे में उपयुक्त जानकारियाँ मिल रही थीं। उन्होंने अपने एक खास एजेंट के जरिए नेताजी के पास खबर भिजवाई कि उनका और उनकी आजाद हिन्द फौज का भारत भूमि पर अभूतपूर्व स्वागत है, यदि वे कोहिमा की ओर से दाखिल हों। चटगाँव की तरफ भूलकर भी कदम न बढ़ायें। वहाँ चप्पे-चप्पे पर दुश्मन उनकी घात में बैठे हैं। मैं नहीं चाहता कि मेरे गोरिल्लों द्वारा आजाद हिन्द फौज के नौनिहाल देशभक्तों का सफाया हो। तब तो भारत की स्वाधीनता की रही-सही आशा भी धूल में मिल जाएगी।


           यह राष्ट्रप्रेम भरा सन्देश पाकर नेताजी के नेत्र सजल हो गए। उन्हें बचपन की सभी पुरानी बातें याद आईं। उन्हें अपने बालसखा पर पूरा भरोसा था। वे उसकी बात मान गए।


         18 मार्च, 1944 को आजाद हिन्द फौज के बाँके जवान मारते-काटते, सड़कें तोड़ते, पुल उड़ाते, कोहिमा और मणिपुर तक आगे बढ़ आए और 14 अप्रैल, 1944 को नेताजी ने स्वयं अपने ही हाथों मोइरंग में भारत-भूमि पर राष्ट्रीय झण्डा फहराया। लगातार दो महीनों तक घास खाकर, पत्ते चबाकर, नदी-नालों का जल पीकर जूझे थे भारतीय वीर।


         इस घटना से पहले अराकान युद्ध ने और भी भंयकर रूप धारण कर लिया था। जाँबाज जापानी अपनी जान पर खेल रहे थे। अंग्रेज बौखला गए और फरवरी, 1944 में रिजर्व में रखी अपनी 26 वीं और 70 वीं डिवीजनें भी लड़ाई के मैदान में झोंक दीं। लिबरेटर चर्चिल, वेलिंग्टन, लेनहेस, वल्टीवेंजनेंस बमवर्षकों से अंधाधुंध बमबारी करके जापानियों की युद्ध-सामग्री ले जाने वाले सभी थल और जल-मार्ग रोक दिए। 'फोर्स-136' एजेंटों ने, जिनमें घोष के गोरिल्ले भी शामिल थे, उनकी रेलों और सड़कों को काम आने लायक नहीं रखा। यही कारण था कि अधिकांश जापानी सैनिकों को बैंकॉक से इफाल तक पन्द्रह सौ किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय करनी पड़ी। हमने उनकी रेलों और मोटरगाड़ियों का तो दौड़ना बन्द कर दिया था, लेकिन हमारा शक्तिशाली रॉयल एयर फोर्स जापानी सैनिकों को यह असभव दूरी पैदल तय करने से न रोक पाया।


        गले में लटकते केवल मुट्ठी भर चावल के दानों के सहारे ही वे जूझ रहे थे। उनकी युद्ध-सामग्री समाप्त हो चुकी थी। घोष के एजेंटों ने उनकी सप्लाई लाइन काटकर उनकी रसद का आना ही बन्द कर दिया था। उनकी दिलेरी सचमुच ऊँची थी-बहुत ऊँची। सैकड़ों तो भूख-प्यास और घुटन से ही तड़प-तड़पकर मर गए और हजारों ने अपनी पेटी से लटककर 'हाराकिरी' कर ली। आत्मसमर्पण से मृत्यु उन्हें कहीं समानजनक और प्रिय थी। अराकान युद्ध जैसी विभीषिका शायद ही इतिहास के पन्नों में देखने को मिले।


       मुस्लिम लीगी नेता हसन शहीद सोहरावर्दी, घोष से दुश्मनी रखने लगा। इसकी खास वजह थी कि जब घोष युद्ध-रेखा के पीछे होते, तो सोहरावर्दी घोष के शरणार्थी शिविरों में जाकर राजनीतिक भाषण देता और मुसलमानों के बीच हिन्दुओं के प्रति घृणा के बीज बोता। इस प्रकार वह वहाँ के मुसलमानों पर अपना सिक्का जमाना चाहता था। घोष ने इस बात पर एतराज किया। सरकार को भी आगाह कर दिया कि भारत-विभाजन के बीज बोए जा रहे हैं। फिर बंगाल प्रान्त के मुस्लिम लीगी नेताओं को चेतावनी भी दे दी कि वे भूलकर भी उसके शरणार्थी शिविरों में कदम न रखें, मगर सोहरावर्दी को इस बात की कहाँ परवाह? उसके कंधे पर तो अंग्रेजों का हाथ था। वह घोष के शरणार्थी कैपों में बिना उनकी पूर्व अनुमति के ही दाखिल होने लगा। ऐसे ही एक मौके पर घोष की गैरहाजिरी में उन्हीं के आदेश से सोहरावर्दी और उसके साथियों को मामूली घुसपैठियों की तरह पकड़ लिया गया। फिर घोष के आने पर ही सबको छोड़ा गया, इस चेतावनी के साथ कि भविष्य में फिर यहाँ आने क ी जुर्रत न करें। सोहरावर्दी इस बात को कभी भूला नहीं और घोष को मटियामेट करने की तदबीरें भिड़ाने लगा।


         आर.बी.लैगडन के माध्यम से फोर्स-136 घोष को बहुत ही अच्छा पारिश्रमिक देता था। लैगडन असम में कई चाय बागानों के मालिक थे। वे घोष के पुराने मित्र भी थे। लैगडन इस धनराशि का एक बड़ा भाग घोष के सालिसीटर-फाउलर एण्ड कंपनी के मालिक हैरी फाउलर के पास जमा कर दिया करते थे। यह सब सर गाल्विन स्टुअर्ट की सिफाारिश पर ही किया गया था। घोष ने फाउलर से इतना अलबत्ता कहा था कि इस रकम को अच्छे से अच्छे काम में लगाया जाए। फाउलर ने घोष के लिए कलकत्ता में बिल्डिगें खरीदनी शुरू कर दीं।


      अपनी बेहतरीन कारगुजारी के फलस्वरूप सन् 1945 के शुरू में घोष की महत्ता काफी बढ़ गई थी और लड़ाई खत्म होने पर घोष को दी गई ताकत, रुतबा, धन-दौलत देखकर अंग्रेज चौंके । घोष हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने पहाड़ी आदिवासियों को जापान के खिलाफ करने में जबरदस्त कामयाबी हासिल की थी। यह काम था भी उन्हीं के बस का। सर गाल्विन स्टुअर्ट और सर कॉलिन मिकेन्जी घबरा गए कि कहीं घोष इन्हीं आदिवासियों को हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए आगे खड़ा न कर दें, जिससे उनका बंगाल-विभाजन का वाब हमेशा के लिए मिट्टी में मिल जायेगा। 'फोर्स-136' बंगाल-विभाजन के पक्ष में था और घोष उसके बेहद खिलाफ। बंगाल पर जापानी कजा भी नहीं हो पाया। अंग्रेजों का घोष से मतलब भी निकल चुका था। फिर तो घोष को मिटा डालने का फैसला आनन-फानन में कर लिया गया। फैसला करने वालों में थे- सर गाल्विन स्टुअर्ट, जनरल सर गिफर्ड और हसन शहीद सोहरावर्दी ''जो बाद में अविभाजित बंगाल का मुयमंत्री बना'' खान बहादुर ई.ए.रे. और उनके साथी।


       'फोर्स-136' ने धन और रुतबे का लालच देकर कुछ लोग तैयार किए। उन्होंने झूठे-सच्चे इल्जाम लगाकर घोष के खिलाफ उलटी-सीधी शिकायतें जड़ीं। लाखों सरकारी रुपयों की फिजूलखर्ची और गोलमाल के जुर्म में घोष को दण्ड का भागी बनाया गया। सामने से घोष की मुखालफत करने वाले प्रमुख व्यक्ति थे- इण्डियन मेडिकल सर्विस के मेजर फिच (इन्हीं हजरत ने मेजर ड्रेक बोजमैन और सर जफरुल्ला खाँ के सहयोग से भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगों और देश-विभाजन की रूपरेखा तैयार की थी, जिसे 'पोस्ट क्विट प्लान' के नाम से जाना गया), चटगाँव-ढाका के कमिश्नर मिस्टर जेमिसन। फिर अन्त में तो बर्मा के लिए अमरीकी और चीनी फौजों को छोड़कर ब्रिटिश लैण्ड फोर्सेज के कमाण्डर इन-चीफ जनरल सर जॉर्ज गिफर्ड, जी.सी.बी., डी.एस.ओ., ए.डी.सी. तक इस घिनौने काम पर उतर आए।


       इस साजिश को कार्यान्वित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने खास तौर पर सन् 1944 का ऑर्डिनेंस 38-ओ.एस. 53/1944 पास किया- केवल घोष को सताने और उन्हें जलील करने के  लिए। घोष की जमीन-जायदाद, शेयर, बीमे आदि जत कर उन्हें कटघरे में ला खड़ा किया। घोष की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वे करें भी तो क्या? सीधे पहुँचे सर गाल्विन स्टुअर्ट के पास। उन्होंने भी ठेंगा दिखा दिया और बोले, ''आपको भर्ती करते समय ही पूरी तरह से आगाह कर दिया गया था कि अगर जाल में फँसते हो, तो खुद ही निकलना होगा। आपकी सहायता करने का मतलब ही है 'फोर्स-136' जैसी ब्रिटिश गुप्तचर संस्था को बेनकाब करना, जो हम किसी भी कीमत पर नहीं कर सकते।'' घोष ऐसे डूबे कि कहीं के न रहे। अराकान युद्ध की सफलता में उनका कितना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, यह भूलने में अंग्रेजों को तनिक देर न लगी।


       स्टुअर्ट ने सच ही कहा था। घोष भी जानते थे कि दुश्मन द्वारा पकड़े जाने पर असह्य यातनाएँ सहने पर और मौत के मुँह में जाने पर भी 'फोर्स-136' उनकी सहायता करके अपने आपको बेनकाब कभी नहीं करेगा।


       तभी घोष को पता चला कि उनके पुराने मित्र और 'फोर्स-136' के साथी आर.बी. लैगडन, जो उन दिनों इंग्लैण्ड में थे, घोष की तरफ से अदालत के रूबरू गवाही देने भारत आ रहे हैं। लैगडन को पूरी जानकारी थी कि यह पैसा कहाँ से और कितना आता था और वे ही इसे घोष को देते भी थे। घोष की खुशी का ठिकाना न रहा, लेकिन उनके भाग्य में तो कुछ और भी बदा था। 'फोर्स-136' को लैगडन के आने की सूचना मिल गई, अतः भारत आते समय कराची में ही उनके यान का 'एयर क्रैश' हो गया, ऐसी खबर कुछ अखबारों में छपा दी गई। मगर हकीकत यह थी कि कराची में ही 'फोर्स-136' के एजेंटों ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी।


       जिस समय कलकत्ता में घोष के मुकद्दमे की सुनवाई हो रही थी, लीगी नेता हसन शहीद सोहरावर्दी बंगाल सरकार का पहला मुयमन्त्री था। ब्रिटिश सरकार द्वारा घोष पर दायर किया गया यह मुकद्दमा कलकत्ता और दिल्ली की अदालतों में दस वर्षों से कुछ अधिक समय तक चला। विद्वान न्यायाधीशों ने घोष का 'फोर्स-136' जैसी ब्रिटिश गुप्तचर संस्था से सबद्ध होना माना ही नहीं। बर्मा शरणार्थी शिविरों का भी पूरा हिसाब-किताब सही निकला। कहीं कोई गड़बड़ी नहीं। फिर भी घोष को सजा मिली। सभवतः भारतीय न्यायालय के इतिहास में यह सबसे गहरा काला धबा है। कानूनी दाँव-पेच में असलियत किस प्रकार दबा दी गई, यह भी इसी केस में उजागर हुआ। इस मामले से यह तो साबित हो ही गया कि भारत छोड़ने के बाद भी इस देश में अंग्रेजों की जड़ें कितनी गहरी हैं।


      15 सितबर,1947 को अदालत में दाखिल किए गए अपने लिखित बयान में घोष ने 'फोर्स-136' में अपने गुप्त क्रियाकलापों का हवाला देते हुए ब्रिटिश सेना के कमाण्डरों की गतिविधियों और लड़ाई में जापानियों के दाँव-पेच का भी इजहार किया था। चार वर्षों बाद सन् 1951 में ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण-पूर्व एशिया कमाण्ड के सुप्रीम अलाइड कमाण्डर अर्ल माउण्टबैटन ऑफ बर्मा की रिपोर्ट प्रकाशित की थी। कहा जाता है कि उसमें भी वही सब बातें लिखी थीं, जो चार वर्ष पूर्व घोष ने अदालत के समक्ष अपने लिखित बयान में कही थीं। फिर घोष के साथ यह अन्याय हुआ ही क्यों?


      अराकान-युद्ध में घोष का योगदान इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। जिस क्षेत्र में ब्रिटिश साम्राज्य के दो-दो फील्ड मार्शलों को जापानियों ने धूल चटा दी थी, वहीं घोष और उनके एजेंट दुश्मन को लगातार ग्यारह महीनों तक बीहड़ जंगलों में फँसाए रहे और कमाल यह कि ब्रिटिश फौज उनसे सैकड़ों मील दूर रही। अराकान-युद्ध की जीत का पूरा-पूरा श्रेय घोष और उनके चतुर जासूसों को है।


       इण्डियन सिविल सर्विस के शौत्तेन्द्रो कुमार घोष जैसे विद्वान् विशेष सूझबूझ वाले अफसर से केवल एक ही बार भेंट हुई थी, जुलाई, 1943 में। स्टुअर्ट ने एक निहायत जरूरी पार्सल उनके हवाले करने उनकी कोठी पर भेजा था। क्या था उसमें, यह तो मुझे आज तक मालूम न हो सका। ऐसी सुरक्षा बरती जाती थी 'फोर्स-136' में, किन्तु थी अवश्य ही कोई अति महत्त्वपूर्ण वजनी चीज, वरना मेरे जरिए कभी न भेजी जाती। उस दिन काफी देर तक गुप्तचरी-प्रतिगुप्तचरी के अचूक दाँव-पेचों पर उनसे विचार-विमर्श हुआ था।


        इस भेंट के बाद उन्होंने बहुत कोशिश की थी मुझे अपने स्टाफ में लेने की, लेकिन लॉर्ड जॉन लिनार्ड कॉली को तो मुझसे कुछ और ही काम लेने थे, अतः वे राजी न हुए। ऐसे दबंग अफसर की याद आज 55 वर्षों बाद भी आ ही जाती है। अब तो वे इस संसार में भी नहीं हैं। उनका देहान्त सितबर,1975 में हुआ था। यह बात मुझे 26 जनवरी, 1982 को ही ज्ञात हुई। ऐसे उच्चकोटि के 'मास्टर-स्पाई' को मेरे शत-शत नमन!



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