धर्म नहीं, अधर्म व पाखंड हैं जीवन को कष्ट प्रद बनाने वाले अनुरठान

धर्म नहीं, अधर्म व पाखंड हैं जीवन को कष्ट प्रद बनाने वाले अनुरठान


      रविदास कहते हैं, "मन चंगा तो कठौती में गंगा। प्रभुजी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।" रविदास हों, कबीर हों, नानकदेव हों, तिरुवल्लुवर हों, हमारे सभी संत-महात्मा हमेषा धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने और उसका पालन करने पर जोर देते रहे हैं। सभी ने धर्म के नाम पर प्रचलित आडंबरों का विरोध व खंडन किया है। आज लोगों ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए भले ही उनके मंदिर बना कर उनकी मूर्तियाँ स्थापित कर दी हों और उनकी पूजा भी करने लगे हों लेकिन कबीर जैसे संत ने तो मूर्तिपूजा का स्पश्ट रूप से खंडन किया है। कबीर कहते हैं :


पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूनँ पहाड़,


उससे तो चक्की भली पीस खाय संसार


      अर्थात् यदि पत्थर या पत्थर की मूर्ति पूजने से भगवान मिलते हैं तो क्यों न मैं पहाड़ की ही पूजा करूँ? उससे (पत्थर की मूर्ति से) तो पत्थर से बनी आटा पीसने की चक्की अच्छी या महत्त्वपूर्ण है जिससे सारा संसार आटा पीस कर अपनी भूख मिटाता हैबड़े-बड़े षहरों और महानगरों के उपासना-गृहों के तो क्या कहने! आजकल तो कई मंदिर ऐसे भी बन गए हैं जहाँ श्रद्धालुओं का नहीं दर्षनार्थियों का तांता लगा रहता हैवे पर्यटन स्थल के रूप में ज्यादा पहचाने जाने लगे हैं|


      आज हम न केवल विषाल व भव्य पूजा स्थलों का निर्माण कर रहे हैं अपितु धर्म व भक्ति के नाम पर प्रदूशण में भी खूब वृद्धि कर रहे हैंजुलूस व षोभायात्राएँ निकाल कर आम नागरिकों के जीवन में मुष्किलें बढ़ा रहे हैं। छोटा या बड़ा कोई भी आयोजन क्यों न हो लाउडस्पीकर का इस्तेमाल आम हो गया है। कीर्तन व जागरण आदि के नाम पर इतना ध्वनि प्रदूशण होता है कि कुछ मत पूछिए। सभी धर्मों के धर्मस्थलों से सुबह-सुबह ही तेज़ आवाज़ में धार्मिकता बरसनी प्रारंभ हो जाती है जिससे बच्चों, बूढ़ों, बीमारों व रात की षिफ्ट में काम करने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। आम नागरिक के जीवन को कश्टप्रद बनाने वाली क्रियाएँ धर्म नहीं हो सकतींईंट-पत्थरों से निर्मित मंदिर-मस्जिद की उपयोगिता और धर्म के नाम पर षोर-षराबे की प्रवृत्ति का खंडन करते हुए कबीर ने तो स्पश्ट षब्दों में कहा है :


कांकर-पाथर जोड़ि के, मस्जिद लई चुनाय,


ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहरा भया खुदाय


      प्रष्न उठता है कि आखिर पूजा-स्थल और पूजा-पाठ के नाम पर षोर-षराबे की आवष्यकता ही क्या है? मंदिर को ही लीजिएमंदिर एक पावन स्थल माना जाता है लेकिन यह श्रद्धालुओं अथवा आगंतुकों की भावना ही है जो किसी पूजा-स्थल अथवा इबादतगाह को पवित्रता का दर्जा देती हैयदि भावना षुद्ध-सात्त्विक है तो ईंट-पत्थरों से बने निर्जीव ढाँचे व लाउडस्पीकर लगाकर षोर करने की बिलकुल आवष्यकता नहीं है। वास्तव में आज भोली-भाली जनता को धर्मांध बनाकर अपना उल्लू सीधा किया जा रहा है। जो भी हो आज अधिकांष धर्म स्थल व्यक्ति और समाज के लिए आध्यात्मिक उन्नति के साधन व केंद्र न रह कर कुछ लोगों के लिए मोटी कमाई के स्रोत बन गए हैं। हमें धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझकर बाह्याडंबर से बचने का प्रयास करना चाहिए तभी हम सही मायनों में धर्म का पालन कर सकेंगे।


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