दीप से दीप जले !

दीप से दीप जले !



      मन भटकता है, तो उसे मंजिल नहीं मिलती, दौड़ता है तो हारता हैपर अपने में शान्त होकर वह सब कुछ पा लेता है। उसे फिर और कुछ भी तो पाने की चाह नहीं रहती।


      जो स्वयं ज्योतिर्मय नहीं है वह दूसरों को ज्योति कैसे देगा ? जिसे स्वयं लक्ष्य का ज्ञान नहीं वह किसी को राह क्या बतायेगा। अंधेरे में भटकने वाला मन प्रकाश-किरणें कैसे बिखेरेगा ?


      वस्तुतः सृष्टिचक्र का यह अटल सत्य है कि जीवन ही जीवन देता है। अग्नि से अग्नि प्रज्वलित होती है। प्राणों की शान्ति ही प्राण भरने में समर्थ होती है।


      अपने मन में जिस बात की इच्छा जागे उसके लिए श्रम साधना की जाए तो इच्छा पूर्ण होती है। सत्य की सफलता भी साधना चाहती है, तभी कामनाएँ फलती और फूलती हैं।


       हम सफल होना चाहते हैं, पर उसके लिए आवश्यक तप, त्याग, बलिदान और संघर्ष से बचते हैं। कभी समय की दुहाई देते हैं और कभी अपने को कोसते हैं, पर कभी एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोचते कि हमारा कितना दोष है!


       अंधकार की घटा में ज्योति की राह देखते हुए धरती आशामयी प्रतीक्षा कर रही है। स्वप्नों को सत्य बनाने के लिए विशाल मानव समुदाय उत्सुक है, पर...मार्ग नहीं मिल पा रहा।


      हम निबिड़ अधंकार में ज्योति का संदेश लेकर उपस्थित हैं। महानाश में निर्माण का डमरू बजाते हुए स्वयं जल कर लौ को शक्ति देने का प्रयास ही हमारा अभिनव क्षेत्र है। इसी के बल से विश्वविजय का सपना भी हमने देखा है।


       चलना है, बढ़ना है, जीतना है और फैलाना है प्रकाश। इसके लिए उन सभी को जलना होगा, जिनके अंतर में अंधकारदलन की आकांक्षा है।


       युग प्रकाश पर्ते खुलेंगी तो सत्य मुखरित होगा। ज्ञान-ज्योति जागेगी और नई प्रतिभा का प्राण दीप्ति-पुंज बन कर शक्ति का अजस्त्र स्रोत बनेगा।


       कौन करेगा स्वागत, आगत का ?


       कौन जलेगा दीपक-सम ?........


       प्रश्नों का उत्तर मानस-मंथन हेतु उत्सुक है, पर क्या मेरे प्रश्न का समाधान कोई कर सकेगा ?


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