दर-दर ठोकर खा रहे, वही धर्मांध लोग।
दर-दर ठोकर खा रहे, वही धर्मांध लोग।
भूले शिक्षा धर्म की,जैसी करनी भोग ।।
मैं-मैं करते सोचते, मिलता है आनन्द ।
अपने होते दूर हैं, घेरे सब मतिमन्द ।।
तापो जी उस अग्नि को, जो मिलती है मुफ्त ।
करती हड्डी पुष्ट है,हो जायें अब चुस्त ।।
पैरावट में खेलते, गिरते कितनी बार ।
फिसल-फिसल कर भागते,पकड़े होती हार ।।
आयोजन कर दे रहे, कितनो को सम्मान ।
नाम नामालूम रहे, किसे लिखे इंसान ।।