संध्योपासना

सन्ध्योपासना



 


       तुम राजकुमार सिद्धार्थ (बुद्ध) को इसलिए जानते हो क्योंकि वे अभी कुछ काल पहले समकालीन थे और इसलिए भी क्योंकि उनका मत असमानान्तर था , नया नया था । भारतीय अध्यात्म और इतिहास के पौने दो अरब साल के आगे बुद्ध के ढाई हजार साल कोई बहुत पुरानी बात नहीं है । लगता है कल परसों की बात है , सांस्कृतिक दृष्टि से बुद्ध हम सबके  'लगभग' समकालीन हैं  इसलिए बुद्ध से हम सब भलीभांति परिचित हैं वरना राजमहलों की वैभवता को ठोकर मारने वाले इस आर्यावर्त में लाखों  करोड़ों राजकुमार हुए हैं लेकिन उनका कोई लिखित इतिहास नहीं है , हो भी नहीं सकता क्योंकि इतिहास केवल उन्हीं पात्रों को संजोकर रखता है जो किसी अद्भुत घटना के प्रथम सृजनकर्ता हों । इस आर्यावर्त में लाखों राजाओं के किशोर कुमारों ने राजमहल छोड़कर मोक्ष का मार्ग अपनाया ।   आर्यावर्त के लिए यह कोई अद्भुत घटना न थी , यह तो इस अद्भुत  देश का नित्य का घटनाक्रम था । अब कौन उनका ब्यौरा रखे ।  ब्यौरा तो उन घटनाओं का रखा जाता है जो असम्भव, प्रथम और अनोखी जान पड़ती हों । जिसके परदादा राष्ट्रपति रहे हों वह इस बात के प्रमाण जुटाने क्यों दौड़ेगा कि उनके परदादा राष्ट्रपति होने से पहले  सरपंच भी रहे थे । 


       मूल प्रश्न है कि राजकुमारों को भी समाधि में ऐसा क्या दिखाई दे गया कि राजमहल के हाथी-घोड़े, छप्पन भोग और हीरों की चमक भी फीकी लगने लगी ।  आठ-दस साल का ध्रुव भी समाधि के दिव्य आनंद से इतना आकर्षित हुआ कि राजमहल छोड़ दिया और पीछे मुड़कर न देखा ।  और कोई एकाध घटना ऐसी घटे तो मान भी लें कि अपवाद है मगर यहां तो आर्यावर्त के हर तीसरे चौथे नरेश को जंगल जाते देखा गया है । जरूर कोई गहरा राज है जो पिछले 4-5 हजार सालों से मनुष्यजाति से छिपा लिया गया और उसके हाथ में नकली और अन्धविश्वासपूर्ण कथिक पूजा पद्धति देकर उसके सारे स्वाद को बेस्वाद कर दिया गया , उसे सन्ध्योपासना की पवित्रता से दूर कर धर्म के नाम पर शोषकों की दुकानों का पंजीकृत ग्राहक बना दिया गया वरना क्या आदमी ऐसा होता है जो आज दिखाई पड़ता है ? क्या आत्मा के पतन की कोई सीमा नहीं है ? जरूर हमसे कुछ छिपाया गया ताकि यह मानवजाति अंधकार में पड़ी रहे और दुकानें मजबूत होती रहें ।


       कल्पना कीजिये आपका कोई मित्र आपको किसी महापुरुष की जीवनी लाकर दे और आप उसे पढ़ने की बजाय केवल उस पुस्तक के नाम को ही बैठकर बोलते रहें , उसी की रट लगाएं रहें तो क्या आप उन महापुरुष बारे कुछ जान पाएंगे ? मान लो मेरे इष्ट देव का नाम  वृषण है और मैं सारा दिन उनकी मूर्ति के आगे खड़ा होकर वृषण वृषण वृषण का रट लगाता रहूँ तो क्या मैं  उन वृषण को जान पाऊंगा ?  तुम पूरा जीवन माथा रगड़कर मर जाते हो और कुछ नहीं निकलता । जब तक तुम वृषण को जान न लोगे विधिपूर्वक तबतक वृषण तो क्या उनकी झलक भी नसीब न होगी । मगर आदमी भीतर यही सोचता रहता है कि मेरे जीवन का फूल न खिल पाया जरूर मेरी ही कोई कमी होगी , मेरी पात्रता न होगी , हम दूसरों को बताते हुए भी शर्माते हैं क्योंकि यह तो अपमान जैसा है कि मैं योग्य नहीं था , और सभी यही मानकर चलते हैं , और इस पागलपन में इतना समय बीत चुका होता है कि लगता है अब बदलाव सम्भव नहीं ।


       सन्ध्योपासना उस मित्र वाली पुस्तक को रोज एकबार पढ़ लेने जैसा है । सन्ध्योपासना प्रभु को विधिपूर्वक जान लेना है और वो भी रोज रोज क्योंकि रोज बुद्धि पर अज्ञानता की धूल जमती है तो रोज हटानी भी पड़ेगी ।  सन्ध्योपासना ही उपाय है, यही सर्वोत्तम विधि है  वरना कोई बुद्ध और आर्यावर्त के लाखों राजकुमार इतने बड़े निर्णय न लेते ।  विधिपूर्वक ईश्वर उपासना ही रूपांतरण का एकमात्र उपाय है ।


 


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