चर्चा और चिन्ता

चर्चा और चिन्ता



      किसी एक साधन और अभ्यास में लगा हुआ साधक यह इच्छा बनाये रखता है कि "मुझे फल-मेवा-दूध-घी तर पौष्टिक पदार्थ अवश्य खाने चाहिएं, और मुझे. मिलने चाहिएं-क्योंकि मेरी शक्ति व्यय होती है। न मिलने से मैं दुर्बल हो जाऊंगा, और अधिक अभ्यास न कर सकूँगा।" तो वह अपनी आत्मा को बलवान् बनावे के स्थान पर निर्बल बनाने की सामग्री जुटा रहा है। वह शरीर को बलवान् बनाने की चिन्ता में है। तथा अभ्यास-साधना उसका बहाना बनी हुई है। आत्मा का बल तो सन्तोष और निस्पृह बनाने में हो सकता है । ऐसे व्यक्ति अभ्यास या साधना संकल्प से नहीं करते हैं, अपितु दूसरे की देखा-देखो करने का यत्न करते हैं। उनका लक्ष्य या ध्येय आत्मा को बन्धन से मुक्त कराने का नहीं हो सकता । यदि वे ऐसा समझते हैं तो वे ठगे जारहे हैंजो मनुष्य (साधक) अभ्यास या साधना केवल अपनी आत्मा-शुद्धि के लिए करता है वह पवित्रआत्मा ही उस प्रभु-पवित्र का पुत्र है। एवं सब माया के पदार्थ प्रकृति को निजी उपज प्रभु के अपने किये हुए हैं। उसका अधिकारी (स्वामी) प्रभु का प्यारा-पुत्र है ही। तब वह पदार्थ स्वयं उछल-उछल कर उस प्रियतम के पुत्र का आहार बनना चाहते हैं। अपनी आहति देना चाहते हैं। जैसे लोहा चुम्बक को देखते ही फुदकताकूदता और उछलकर उसके संग जा लगना चाहता है। ऐसे ही पदार्थ भी उस पवित्रात्मा के शरीर को देखकर उस शरीर के संग होना चाहते हैं एवं लोगों में प्रभु स्वयं श्रद्धा उत्पन्न करके अपने अभ्यासी भक्त के पास बिना उसकी इच्छा संकल्प के सब उत्तम वस्तुएं पहुंचवाता है प्रभु ईमानदार स्वामी है और सावधान हितचिन्तक हितसाधक माता है-जो मजदूरी करनेवाले, परिश्रम करनेवाले पुत्र को बिना मांगे ही उसके अनुकूल हितकर वस्तु स्वयं पहुंचाने का उत्तरदायी है । साधक को तो चर्चा करनी चाहिए चिन्ता नहीं (चर्चास्वामी की चर्चा), (चिन्ता-खाने की चिन्ता)।


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