चंद्रभानु गुप्ता

 चंद्रभानु गुप्ता     


        यह वह दौर था (1927) जब क्रांतिकारियों की वकालत करने के लिए कोई तैयार नहीं होता था.
रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथियों को ब्रिटिश सरकार अपना दुश्मन मानती थी. आज से 90 साल पहले ब्रिटिश सरकार ने 3 लाख रूपए खर्च किए थे काकोरी के केस में ताकि बिस्मिल और उनके साथी फांसी पर टंग जाएं.


          चंद्रभानु गुप्ता का जन्म 14 जुलाई 1902 में अलीगढ़ के बिजौली में हुआ था. उनके पिता हीरालाल थे. वो दौर आर्यसमाज का था. चंद्रभानु इससे जुड़ गये और पूरे जीवन इन्हीं बातों को ले के चलते रहे. आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते रहे, कभी शादी नहीं की. इनकी शुरुआती पढ़ाई लखीमपुर खीरी में हुई. फिर वो लखनऊ चले आए. लॉ पूरा किया. और लखनऊ में ही वकालत शुरू कर दी. एक जाने-माने वकील बन गये. उस वक्त के अधिकांश नेता जाने-माने वकील ही होते थे. आजकल तो वकीलों की बाढ़ आ गई है. उस वक्त बहुत कम लोग ही पढ़ते थे लॉ. जो पढ़ गया वो जाना-माना हो जाता था.


           17 बरस की उम्र में चंद्रभानु स्‍वतंत्रता आंदोलन में उतर आए थे. सीतापुर में रौलेट एक्ट के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल हुए. ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाना उस दौर में जवानी की निशानी थी. ना उठाने का ऑप्शन ही नहीं था. चंद्रभानु साइमन कमीशन के विरोध में भी खड़े हुए. जेल गये. पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में कुल 10 बार जेल गये. इसी दौरान काकोरी काण्ड के क्रांतिकारियों के बचाव दल के वकीलों में भी रहे.


          चंद्रभानु गुप्ता के राजनीतिक करियर की शुरुआत 1926 में हुई. उनको उत्तर प्रदेश कांग्रेस और ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का सदस्य बनाया गया. चंद्रभानु ने राजनीति में आते ही बहुत कम समय में कांग्रेस में अपनी पहचान बना ली थी. तुरंत यूपी कांग्रेस के ट्रेजरार, उपाध्यक्ष और अध्यक्ष भी बने. 1937 के चुनाव में वो उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गए. फिर स्वतन्त्रता के पहले 1946 में बनी पहली प्रदेश सरकार में वो गोविंदबल्लभ पंत के मंत्रिमंडल में पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी के रूप में सम्मिलित हुए. फिर 1948 से 1959 तक उन्होंने कई विभागों के मंत्री के रूप में काम किया.


           चंद्रभानु नेहरू के सोशलिज्म से बिलकुल प्रभावित नहीं थे. तो नेहरू इनको पसंद नहीं करते थे. पर यूपी कांग्रेस में चंद्रभानु का इतना प्रभाव था कि विधायक पहले चंद्रभानु के सामने नतमस्तक होते थे, बाद में नेहरू के सामने साष्टांग.
          1963 में के कामराज ने नेहरू को सलाह दी कि कुछ लोगों को छोड़कर सारे कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों को रिजाइन कर देना चाहिए. जिससे कि स्टेट सरकारों को फिर से ऑर्गेनाइज किया जा सके. कहा गया कि कुछ दिन के लिए पद छोड़ दीजिए. पार्टी के लिए काम करना है. पर चंद्रभानु की नजर में ये था कि ये सारा गेम इसलिए हो रहा है कि नेहरू जिसको पसंद नहीं करते, वो चला जाए. उन्होंने मना कर दिया. पर इनको समझा लिया गया कि ये कुछ दिनों की बात है. फिर से आपको बना दिया जायेगा मुख्यमंत्री. पर नहीं हुआ ऐसा. कामराज प्लान के तहत चंद्रभानु को आदर्शों की दुहाई पर पद छोड़ना पड़ा. जनतंत्र पर तानाशाही का बड़ा ही डेमोक्रेटिक वार था ये. चुने हुए नेता को नापसंदगी की वजह से पद से हटना पड़ा.


हमेशा आरोप लगता रहा कि गुप्ता ने खूब पैसा बनाया है. पर जब मरे तो उनके अकाउंट में दस हजार रुपये थे.


                                                       विरोधियों के दोस्त --
        उस वक्त चंद्रभानु गुप्ता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उनके खिलाफ के चंद्रशेखर (जो बाद में भारत 40 दिन के लिए प्रधानमन्त्री बने) और उनके साथियों ने लखनऊ में प्रदर्शन किया. प्रदर्शन करते-करते शाम हो गई थी. लगभग दस हज़ार प्रदर्शनकारी लखनऊ में थे. पर किसी के खाने-पीने का कोई इंतजाम नहीं था. तो चंद्रशेखर अपने कुछ साथियों के साथ चंद्रभानु गुप्ता से मिलने गए. चंद्रभानु ने कहा, आओ भूखे-नंगे लोगों. इनको ले तो आए, अब क्या लखनऊ में भी भूखा ही रखोगे. चंद्रशेखर ने कहा – आपका राज है, जैसा चाहें कीजिए. चंद्रभानु गुप्ता बोले, ' पूड़ी-सब्जी पहुंचती ही होगी. मैंने पहले ही समझ लिया था कि बुला तो लोगे, लेकिन खाने का इंतजाम नहीं कर पाओगे.


आज के राजनेता विरोधियों को लाठी डंडे से पिटवाते हैं.
नेहरू के छल कपट के ये भी शिकार रहे.


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