अलाउद्दीन खिलजी की फौज को औलिया ने दिया तेलंगाना फतह का आशीर्वाद- सूफी सच

अलाउद्दीन खिलजी की फौज को औलिया ने दिया तेलंगाना फतह का आशीर्वाद- सूफी सच


                                                                           विजय मनोहर तिवारी


        भारत में इस्लाम के फैलाव की पड़ताल भाग-23 में पढ़ें अलाउद्दीन  खिलजी पर सूफी संत हज़रत निज़ामुद्दीन की रहमत के विषय में।


       मेरे कई मुस्लिम मित्र हैं, जो यह मानते हैं कि भारत में इस्लाम का प्रसार सूफियों ने किया। सूफियों के असर से ही भारत के अलग-अलग वर्ग के लोगों ने तेज़ी से इस्लाम स्वीकार किया। जब यह कहा जाता है तो इससे ऐसा लगता है जैसे सूफी संत इंसानियत का कोई पैगाम लेकर आए और यहाँ तमाम तकलीफें झेल रहे हिंदुस्तानियों की तकदीर बदलने का कोई ऐसा रास्ता बता दिया, जिससे लोग कतार लगकर बड़े चाव से कलमे पढ़ने लगे!


        इस आम प्रचलित धारणा के उलट सच्चाई देखने के लिए हम एक बार फिर अलाउद्दीन खिलजी के समय में ही दिल्ली की सैर पर निकलते हैं- सीधे हजरत निजामुद्दीन औलिया के साए में! याद रखिए यह 1310 का साल है।


        100 साल गुज़र चुके हैं। तुर्कों के कब्ज़े के बाद खिलजियों के हाथ में दिल्ली का कब्ज़ा है और पहली बार हम यहाँ निज़ामुद्दीन औलिया का नाम सुनते हैं। ये वही हैं, जिनके नाम से आज 2020 में दिल्ली से सटा हज़रत निज़ामुद्दीन नाम का एक बड़ा रेलवे स्टेशन है। लेकिन इस वक्त हज़रत का डेरा दिल्ली में है और यहाँ अलाउद्दीन खिलजी की हुकूमत है।


        अब तक हमने बहुत विस्तार से देखा कि कुतबुद्दीन एबक से लेकर अलाउद्दीन खिलजी तक चल क्या रहा है? दस्तावेजों के हर पन्ने पर खून की इबारतें हैं। कत्लेआम के किस्से हैं। लूटमार है। कब्ज़े हैं। जौहर हैं। गुलामों के बाज़ार हैं। अलाउद्दीन की लगातार हमलों और लूटमार की नीतियाँ इस कदर कारगर हुईं कि हर बार दिल्ली वालों को पिछली लूट से ज्यादा आंखों को चौंधियाने वाली दौलत दिखाई दी। जियाउद्दीन बरनी का विश्लेषण है–


       “अलाउद्दीन की सारी योजनाएँ, चाहे वह सोच-समझकर हाथ डाले या बिना सोचे-विचारे, कामयाब हो रहीं थीं। उसकी कामयाबी को चमत्कार समझा जाता था। अपनी फौज की फतह और कामयाबी के बारे में वह जो बातें कहा करता था, उनके बारे में यह मशहूर हो गया कि वे सूफियों के चमत्कार और किसी दैवीय प्रेरणा से ही मुमकिन हो रही हैं।“


         हज़रत निज़ामुद्दीन शेख साहब की शान में बरनी का बखान देखिए– “सियासत और मजहब की जानकारी और अल्लाह के फैसले को ठीक से समझने की काबिलियत रखने वाले अलाउद्दीन की कामयाबियों पर कहा करते थे इस्लामी परचम को जो भी फतह हासिल हुई हैं, वे सबकी सब शेखुल इस्लाम निज़ामुद्दीन गयासपुरी की दुआओं का सबूत हैं।इसकी वजह यह है कि वे अल्लाह के चहेते और करीबी हैं।


       उनकी ही दुआओं से इस्लामी परचम बुलंदी पर है अन्यथा अलाउद्दीन का इतने पाप, कत्ल, जुल्म और खूनखराबे के कारण सूफियों की करामात से कोई ताल्लुक ही नहीं हो सकता था। शेख निजामुद्दीन की इबादत का ही असर है कि यह सब मुमकिन हो सका। अलाउद्दीन खिलजी को इतनी कामयाबियाँ मिलीं।“


       क्या यह मुमकिन है कि हज़रत निज़ामुद्दीन को अपने चारों तरफ बुरी घटनाओं से भरी दिल्ली में रहते हुए यह पता नहीं होगा कि खुद को सुलतान कहने वाले ये आतंकी इस्लाम के नाम पर कर क्या रहे हैं? ये किस तरह की हुकूमत है और बेकसूर हिंदुस्तानियों को कत्लो-गारत में धकेलकर उनकी संपत्तियों को लूट-लूटकर लाने का लाइसेंस इस्लाम के किस विधान के तहत इन्हें किसने दिया है?


        हज़रत तो एक पवित्र आत्मा थे। एक रूहानी ताकत थे, जिनका अपना असर था। अगर बरनी जैसा इस्लाम का जानकार इतिहासकार इस कत्लोगारत और लूटमार में कामयाबी का सेहरा शेख के सिर बांध रहा है तो इसकी कोई वजह होनी चाहिए।


                                      तेलंगाना की ओर कूच


       ठीक इसी समय यानी 1310 में अलाउद्दीन खिलजी ने पहली बार दूर दक्षिण में तेलंगाना पर एक बड़े हमले के लिए अपने नायब मलिक काफूर को भेजा। उसके साथ बड़े-बड़े मलिक और अमीर तैनात किए गए। महाराष्ट्र के देवगिरि से भी बहुत आगे यह एक बहुत बड़ी मुहिम थी, जिसमें महीनों का वक्त तो आने-जाने में ही लगना था।


      इन बेहद खर्चीली मुहिमों में भारी-भरकम निवेश भी लगता था। उसके खजाने में जमा जो सोना-चांदी इन अभियानों में बरसाया जाता था, वह भी ऐसे पिछले अभियानों में हिंदू राज्यों की लूट का ही माल था। लूट की दौलत से लूट की और ज्यादा दौलत हासिल करने का एक कारगर फार्मूला।


       मलिक काफूर को तेलंगाना के इस धावे में हर हाल में कामयाबी के लिए अलाउद्दीन उसकी एक लंबी क्लास लेता है। बाज़ार पर किसी भी सूरत में कब्ज़े के जोश, जुनून और जज्बे से भरी किसी मालदार कॉर्पोरेट कंपनी में आक्रामक मार्केटिंग के 'पावर प्वाइंट प्रज़ेंटेशन' की तरह एक-एक स्लाइड के ज़रिए वह एक चेयरमैन या एमडी के रूप अपने जनरल मैनेजर (यानी नायब मलिक काफूर) को समझाता है कि साउथ इंडिया की इस कैम्पेन के दौरान उसे कौन-सा टारगेट अचीव करना है?


       अपने हजारों एक्जीक्यूटिव (यानी लूट और कत्ल करने वाली फौज) को साथ रखते हुए उसे क्या-क्या सावधानियाँ रखनी होंगी? कैसे अपने टारगेट को फंसाना होगा और सोना, चांदी और गुलामों का बटवारा किस गणित से करना होगा। हमला, लूटमार और कत्ल अलाउद्दीन खिलजी की लगातार तजुर्बेकार और ताकतवर होती गई कपंनी का एकसूत्रीय कार्यक्रम था!


       इस खूनी धावे के रास्ते में देवगिरि एक बार फिर लुटना था। इस बार अमन और भाईचारे के माहौल में मदद की शक्ल में देवगिरि की ताकत काम आनी थी। देवगिरि की मदद से ही तेलंगाना का रास्ता तय किया गया।


       चंदेरी में बाकी अमीर और मलिक अपने-अपने गिरोह के साथ उसे मिले। यहाँ सारी फौज की एक परेड हुई। देवगिरि में यादव वंश के राजा रामदेव अब भी हैं। वे दूध के जले हैं। छाछ को भी फूँक-फूँककर पीते दिखाई दे रहे हैं। बरनी की रिपोर्ट है-


      “रामदेव ने इस्लामी फौज का इस्तकबाल किया। मलिक नायब को तरह-तरह के तोहफे दिए। मलिकों और अमीरों को भी यादगार के रूप में भेंटें दीं। रामदेव हर दिन सामने आकर जमीनबोस करता था। देवगिरि का सारा बाज़ार फौजियों के लिए खुलवा दिया गया। कारोबारियों को चेतावनी दी गई कि लश्कर की ज़रूरत की चीजें सस्ते दामों पर दी जाएँ।


      कुछ दिन अलाउद्दीन की थकी-हारी फौज ने देवगिरि में आराम किया। रामदेव ने अपने लोग तिलंग के रास्ते में सब कस्बों में भेज दिए ताकि देवगिरि की सरहद तक अनाज और खाने की चीजें इकट्‌ठा करके दी जाएँ। अगर फौज के लिए सामान रखने की कोई रस्सी भी खो जाए तो उसका जवाब वे देंगे।


       लश्कर के हर आदमी को रास्ता बताएँ और पीछे रह जाए तो उसे आराम से लश्कर में पहुँचा दें। रामदेव ने अपने भरोसेमंद मराठे सवार और प्यादे अलाउद्दीन खिलजी की फौज के साथ तैनात कर दिए।“


      एक दिन ये लुटेरी फौजें तेलंगाना की सरहद पर पहुँची और फौरन कस्बों और देहातों को लूटना शुरू कर दिया। राजधानी का नाम बरनी ने आरंगल लिखा है, जहाँ राजा का नाम लुद्दरदेव लिखा गया है। मूलत: यह तेलंगाना के राजा रुद्रदेव हैं।


      लूट के लिए फौजों को दूर इलाकों को रवाना करने के पहले अलाउद्दीन दिल्ली के बाद पहली मंज़िल तिलपट से लेकर टारगेट तक थाने स्थापित करता था। हर मंज़िल पर दूतों के लिए घोड़ों का इंतज़ाम होता था। पूरे रास्ते में आधे-आधे या चौथाई कोस पर धावा करने वाले जत्थों की तैनाती, रास्ते में पड़ने वाले कस्बों में बेहतर कम्युनिकेशन के लिए खास लोग नियुक्त रहते थे, जो हर रोज दिल्ली की तरफ अपडेट रिपोर्ट भेजते थे। इस तरह रोज या हर दूसरे-तीसरे दिन अलाउद्दीन को दिल्ली में बैठे-बैठे हर तरफ से अपनी लुटेरी फौजों की हर हरकत का पता चलता रहता था।


                        शेख के पास इस्लामी फतह की ब्रेकिंग न्यूज़


       तेलंगाना की इस मुहिम में आगे क्या हुआ, यह हम बाद में देखते हैं। अभी हम वापस हज़रत शेख निजामुद्दीन औलिया के पास रूहानी तजुर्बे के लिए लौटते हैं। 40 दिन से ज्यादा वक्त हो गया था और देवगिरि से आगे तेलंगाना में दाखिल हुए मलिक काफूर की तरफ से कोई खबर नहीं मिली थी।


      अलाउद्दीन बहुत फिक्र में था। शहर के बुजुर्गों को भी शंका होने लगी कि कहीं कोई आफत तो नहीं आ गई। फौज कहाँ, किस हाल में है? मुसीबत की आशंका और भारी असमंजस की उसी हालत में अलाउद्दीन खिलजी को हज़रत निज़ामुद्दीन याद आते हैं।


       उसने मलिक किराबेग और काजी मुगीसुद्दीन बयाना को हज़रत के पास भेजा और उनसे कहा, “शेख निज़ामुद्दीन को मेरा सलाम कहने के बाद बताना कि मेरा दिल इस्लामी फौज के बारे में कोई जानकारी न मिलने से बहुत फिक्र में है। आपको मुझसे ज्यादा इस्लाम की चिंता है। अगर नूरेबातिन (अल्लाह की प्रेरणा) से आपको फौज का कुछ हाल मालूम हो तो मुझे बताने की तकलीफ करें।“ अलाउद्दीन ने हिदायत दी, “शेख की जबान से जो बात या खबर सुनो, बिना कुछ घटाए-बढ़ाए ज्यों की त्यों मुझसे आकर कहो।“


       बरनी के इस ब्यौरे से एक बात साफ हो जाती है कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया किसी समाधि की अवस्था में तो नहीं ही थे कि अपने आसपास घट रही घटनाओं से बेखबर कुंडलिनी का सातवाँ चक्र जागृत हो चुकने के बाद वाली रूहानी स्थिति में लीन हों। अलाउद्दीन खिलजी के गुर्गे अपने सरगना की फिक्र लेकर शेख के सामने हाज़िर होते हैं।


      शेख ने तसल्ली से सब सुना और अलाउद्दीन की फतह और कामयाबी की ब्रेकिंग न्यूज़ उन्हें दे दी। हज़रत क्या फरमा रहे हैं, आप भी गौर फरमाइए– “जाकर अपने बादशाह से कहो कि इस फतह का तो कोई मूल्य ही नहीं है, मुझे तो दूसरी फतहों की उम्मीद दिखाई देती है।”काज़ी और किराबेग उल्टे पैर भागे-भागे अलाउद्दीन के पास आए और शेख साहब की बात जस की तस बयां कर दी। यह एक बड़ी खुश खबरी थी। दौलत के अंधे को दो आँखों के सिवा चाहिए क्या था।


     अलाउद्दीन खिलजी यह सुनकर बहुत खुश हुआ और समझ गया कि आरंगल में फतह हो गई है। उसने अपनी पगड़ी को हाथ में लेकर उसकी एक गांठ लगाई और कहा, “मैंने शेख की बात से एक शगुन निकाला है। मैं समझता हूँ कि शेख की जबान से कोई झूठ बात नहीं निकल सकती। आरंगल में कामयाबी मिल गई है। हमें दूसरी फतहों पर ध्यान देना चाहिए।“


     अल्लाह की मेहरबानी से उसी दिन दूसरी नमाज़ के वक्त मलिक नायब के दूत दिल्ली पहुँचे और आरंगल की फतह का हाल सुनाया। जुमे दिन मस्जिदों के मिंबर से फतहनामे पढ़े गए। दिल्ली में खुशी के नक्कारे बजाए गए। खुशियों का माहौल बन गया। अलाउद्दीन खिलजी का हज़रत निज़ामुद्दीन के चमत्कारों में यकीन और ज्यादा गहरा हो गया। मगर आरंगल में क्या हुआ था? बरनी साहब का बयान है-


     “उन स्थानों के राय और मुकद्दमों ने इस्लामी फौज की लूटमार देखकर रास्ते के सभी किले छोड़ दिए और वे आरंगल पहुँचकर वहाँ के किले में महफूज़ हाे गए। आरंगल का मिट्‌टी का किला बहुत लंबा-चौड़ा था। राय मुकद्दम और प्रतिष्ठित लोगों, हाथियों और धन-संपत्ति को लेकर पत्थर के बने किले में दाखिल हो गया।


      मलिक नायब ने मिट्‌टी के किले को घेरा। हर दिन बाहर-भीतर के लोगों के बीच जंग चल पड़ी। कुछ दिन ऐसे ही बीते। आखिरकार इस्लामी बहादुरों ने सीढ़ियाँ और कमंदे लगाकर किले पर जा पहुँचे। तलवार, तीर, भालों और कटारों से भीतर वालों का दिमाग ठंडा कर दिया। किले पर कब्ज़ा हो चुका था।


       अब राय ने देखा कि पत्थर का किला भी खतरे में है। उसने प्रतिष्ठित ब्राह्मणों और प्रसिद्ध भाटों को तोहफे देकर मलिक नायब की खिदमत में भेजा। समझाैते का प्रस्ताव रखा। यह शर्त तय की गई कि वह पूरा खजाना, हाथी, घोड़े, जवाहरात और बेशकीमती दीगर वस्तुएँ हाज़िर करेगा। हर साल एक निश्चित धन-संपत्ति और हाथी दिल्ली भेजेगा।“


      यह समझौता हो जाता है। अब तेलंगाना का पीढ़ियों से जमा खजाना खोला जाता है। 100 हाथी, 7000 घोड़े, जवाहरात और बेशकीमती चीजें बाहर लाई जाती हैं। राजा से यह लिखवाया जाता है कि वह भविष्य में क्या-क्या माल दिल्ली भेजेगा।


      लूट का माल लेकर मलिक काफूर का काफिला देवगिरि, धार और रणथंभौर के पास झायन के रास्ते से होता हुआ दिल्ली लौटता है। दिल्ली की मस्जिदों में विजय पत्र पढ़े जा रहे हैं। बदायूं दरवाज़े के सामने मैदान पर चौतरा-ए-नासिरी पर दरबार लगता है। लूट के सारे सोने, जवाहरात, हाथी, घोड़े और दूसरी बहुमूल्य वस्तुओं की नुमाइश होती है।


              हिंदुओं के कटे हुए सिरों से गेंद की तरह चौगान खेलें


      निज़ामुद्दीन औलिया के खास चेले महाकवि अमीर खुसरो ने तेलंगाना की इस लूटमार को बेहतर ढंग से तारीखवार दर्ज किया है। वाकई वह बहुत कमाल का आदमी है। आरंगल के किले की तस्वीर उसने इन शब्दों में खींची है-


    “जब सेना आरंगल पहुँची तो मलिक नायब कुछ लोगों को लेकर किले के बारे में पूछताछ करने निकला। उस किले के समान कोई दूसरा किला धरती पर नहीं था। इसकी दीवारें कच्ची मिट्‌टी की थीं लेकिन मजबूत थीं। इसमें लोहे का भाला भी घुस नहीं सकता था। पत्थर भी टकराकर वापस आ जाते थे। मिट्‌टी के मीनार और अटारियाँ बहुत मज़बूत थीं।


      उस दिन सेना के शिविर के लिए जगह देखकर मलिक नायब लौट आया। आरंगल के दरवाजे से एक मील दूर मलिक नायब का शिविर लग गया। हर तुमन को किले के चारों तरफ 12 गज ज़मीन दी गई। इस तरह चारों तरफ लगे शिविरों से 12,546 गज जमीन घिर गई।


     शिविरों द्वारा कुफ्र की भूमि कपड़े का बाजार बन गई। हर फौजी को अपने शिविर के पीछे लकड़ी का एक कठघरा बनाने का हुक्म हुआ। इसके लिए फलदार पेड़ काट डाले गए। रात में उस इलाके के मुकद्दम माणिकदेव ने 1,000 हिंदू सवारों के साथ हमला बोला। लेकिन शाही फौज अजगर की तरह उन्हीं का इंतज़ार कर रही थी। रावतों के सिर कट-कटकर अजगर के अंडों के समान ज़मीन पर लुढ़कने लगे। बहुत से हिंदू मार डाले गए, भाग गए और कुछ पकड़ लिए गए।“


    मलिक नायब अमीर हाजिब भी था, जिसका काम दरबार की शान के लिए सब तरह के इंतज़ाम करने का था, जो यह देखता था कि सरगना सुलतान के सामने अमीर और मलिक किस कायदे से खड़े होंगे। वह चौगान खेलने का शौकीन था।


      आरंगल में उसने अपनी फौज को हुक्म दिया कि वे हर दिन लुद्दरदेव (रुद्रदेव) के मुकद्दमों के कटे हुए सिरों से चौगान खेला करें। जहाँ कहीं भी उन्हें कोई हिंदू रावत मिल जाए, वे उसके सिर को गेंद समझकर ले आएँ। सवारों ने हुक्म मिलते ही बहुत से गेंद हासिल कर लिए और चौगान के चाहने वाले मलिक नायब के सामने पेश किए।


      31 अक्टूबर 1309 को दिल्ली से अलाउद्दीन खिलजी की यह फौज रवाना हुई थी। जनवरी 1310 में तेलंगाना की सरहद पर पहुँची और एक महीने के घेराव के बाद 14 फरवरी 1310 को आरंगल के किले पर कब्ज़ा जमाने में कामयाब रही।


        पूरे आठ महीने बाद 23 जून 1310 को वापस दिल्ली पहुँची, जहाँ चौतरा-ए-नासिरी पर अलाउद्दीन का काला छत्र सजा और लूट की बेतहाशा दौलत की नुमाइश से दिल्ली की आँखें एक बार फिर चौंधिया गईं। बदायूं दरवाजे की उस रौनक से लौटकर उसी दिन अमीर खुसरो ने तेलंगाना की तबाही की खबरें अपने उस्ताद हजरत निजामुद्दीन औलिया को सुनाई ही होंगी। तब हजरत ने दुआ में हाथ ऊँचे किए होंगे। अलाउद्दीन खिलजी ने तो कहा ही था कि शेख को इस्लाम की फिक्र उससे ज्यादा है!


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