आत्मा के भीतर का मैल समाप्त करने वाला ईश्वर ही है।

आत्मा के भीतर का मैल समाप्त करने वाला ईश्वर ही है।

एक गुरु के दो शिष्य थे। दोनों लम्बे समय से गुरु के निर्देशन में साधना करते आ रहे थे। एक बार दोनों ने अपने गुरु से दीक्षा देकर सन्यासी बनाने का आग्रह किया। गुरु ने कहा उचित ठीक है आप दोनों को कल दीक्षा देंगे। आप दोनों कल नदी पर स्नान कर नवीन वस्त्र धारण कर मेरे पास आना। मैं दोनों को दीक्षा दूंगा। अगले दिन प्रात:काल दोनों शिष्य नदी पर स्नान करने गए तो उनके गुरु भी उनके पीछे चल दिए। गुरु साथ में एक ग्रामीण व्यक्ति को ले गए। पहला शिष्य स्नान करने के पश्चात नवीन वस्त्र धारण कर वापिस आ रहा था। मार्ग में उस ग्रामीण ने उसके ऊपर कूड़ा डाल दिया। पहला शिष्य क्रोधित होता हुआ बोला। तुमने मेरे वस्त्र ख़राब कर दिए। आज मैं दीक्षा लेकर सन्यासी बनने जा रहा था। अब मुझे दोबारा स्नान कर फिर से वस्त्र बदलने पड़ेंगे। यह कहकर बुदबुदाता हुआ वह वापिस नदी पर चला गया। पीछे से दूसरा शिष्य स्नान कर नवीन वस्त्र पहनकर गुरु से दीक्षा लेने के लिए चला। मार्ग में उसी ग्रामीण ने उसके ऊपर कूड़ा डाल दिया। दूसरा शिष्य बिना क्रोधित हुए नम्रतापूर्वक बोला। यह कूड़ा, यह वस्त्रों का मैल तो उस कूड़े, उस मैल के समक्ष कुछ भी नहीं हैं, जो वर्षों से मेरी आत्मा के भीतर गंदगी के रूप में जमा हुआ है। यह बाहरी मैल तो वस्त्र धोने मात्र से धूल जाता हैं। परन्तु भीतर का मैल तो परमात्मा की कृपा से ही समाप्त होता हैं।
उन शिष्य के गुरु वृक्ष के पीछे छुपे हुए अपने शिष्य के वचनों को सुन रहे थे। उन्होंने अपने शिष्य को गले से लगा लिया और कहा आप दीक्षा लेने के पात्र बन चुके है। आपके ऊपर ईश्वर की कृपा हो चुकी हैं। जो भीतर के मैल को दूर करने की चेष्ठा करता है वही मोक्ष पथ का पथिक है। मनुष्य को प्रकृति के बाहरी प्रलोभनों से विरक्ति कर उसके स्थान पर प्रकाश करने वाला ईश्वर ही हैं। अथर्ववेद 4/11/5 में वेद इसी सन्देश को बड़े सुन्दर शब्दों में लिखते हैं। वेद कहते है,"परमात्मा की ज्योति के उपासक मुमुक्षुओं (मोक्ष की इच्छा रखने वाले) के अंदर से भोगों या भोग बंधन में बांधने वाली प्रकृति के मृत्यु रूप जड़भाव को नष्ट कर देती है और उनके अंदर स्वप्रकाश तरंग को संचालित कर देती है।"

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