आर्यसमाज का वार्षिकोत्सव

आर्यसमाज का वार्षिकोत्सव


           आर्यसमाज प्रेमनगर, देहरादून का वार्षिकोत्स के अवसर पर सहारनपुर के आर्य विद्वान श्री वीरेन्द्र शास्त्री जी का व्याख्यान हुआ। उन्होंने बताया कि जब उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जी की आत्मकथा ''कल्याण मार्ग का पथिक” को पढ़ा तो उन्हें लगा कि अपने जीवन की सभी सत्य बातों मुख्यतः जिन्हें समाज में बुरा माना जाता है और जो बुरी हैं भी, उन्हें यथावत् प्रस्तुत कहना व लिखना अत्यन्त कठिन है। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा में अपने जीवन के अन्धकारपूर्ण पक्षों पर भी प्रकाश डाला है। श्री वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि हम आर्य-आर्य चिल्लाते हैं परन्तु हम आर्य हैं नहीं। उन्होंने पूछा कि क्या हम स्वामी श्रद्धानन्दजी का बलिदान दिवस मनाकर ही रह जायेंगे? स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन से हम सबको सीख लेना जरुरी है। शास्त्री जी ने कहा कि आज आर्यसमाज पर कब्जा करने वाले ही अधिकांश लोग मंत्री व प्रधान बना करते हैं। हम लोग स्वार्थी हो गये हैं। पं. वीरेन्द्र शास्त्री जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा अपनी जालन्धर की बड़ी हवेली गुरुकुल को दान करने की घटना सुनाई। उन्होंने बताया कि स्वामी श्रद्धानन्द जी ने इससे पहले अपनी समस्त सम्पत्ति जिसमें सद्धर्म प्रचारक का मूल्यवान प्रेस वा मुद्रणालय भी सम्मिलित था, उसे भी गुरुकुल को दान कर दिया था। इसके विपरीत हम लोग आर्यसमाज को अपनी व्यर्थ व अनुचित एषणाओं की पूर्ति का साधन बनाते हैं और आर्यसमाज पर अधिकार जमा कर दूसरों के आर्यसमाज मेें प्रवेश का मार्ग बन्द करने का प्रयास करते हैं। आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि हमें अपनी स्वार्थ से भरी हुई प्रवृत्तियां छोड़नी होंगी। 


            पंडित वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि सदाचार हैवान को भी इंसान बना देता है। उन्होंने कहा कि राम व कृष्ण को भगवान की उपमा दी गई इसका कारण उनके भीतर की त्याग भावना थी। आचार्य जी ने कहा कि आर्यसमाज के सिद्धान्त हमें त्याग की भावना की शिक्षा देते हैं। 'इदं न मम्' का अभिप्राय संसार में हमारा अपना कुछ नहीं है। जो कुछ है वह सब परमात्मा का है। आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि पदों की लोलुपता ने हमारे समाज के अनेक अधिकारियों को सामाजिक व नैतिक दृष्टि से गिरा दिया है। आचार्य जी ने आर्यसमाज की स्थितियों को देख कर अपने दुःख का प्रकट करते हुए अपने अनुभवों पर आधारित समाज के हित के लिये अनेक कटु शब्द भी कहे। उन्होंने श्रोताओं को प्रेरणा की कि आप पीछे रहें और दूसरों को आगे बढ़ायें। आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने बताया कि उनके गांव में जो आर्यसमाज हैं वहां 45 वर्ष की आयु से कम युवा ही आर्यसमाज के अधिकारी बन सकते हैं। उनके समाज के सभी अधिकारी युवा हैं। आचार्य जी ने बताया कि उनके समाज का नया भवन बन रहा है जो अगले वर्ष पूरा हो जायेगा। 


           पंडित वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि हमारे भीतर त्याग की प्रवृत्ति होनी चाहिये। हमें सुखों की सामग्री का भोग त्यागपूर्वक करना है। आचार्य जी ने बताया कि जिसका जीवन व वाणी शिक्षाप्रद हो उसे आप्त कहते हैं। श्री वीरेन्द्र शास्त्री जी ने योगेश्वर श्री कृष्ण जी के जीवन की चर्चा की। उन्होंने द्रोणाचार्य के वध का प्रकरण सुनाया। द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु का प्रसंग भी उन्होंने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अहिंसा परमधर्म केवल संन्यासियों के लिये है। आचार्य जी ने कृष्ण, द्रोणाचार्य एवं युधिष्ठिर जी के प्रसंगों को सुनाकर द्रोणाचार्य के वध की विस्तार से समीक्षा की। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द जी ने कृष्ण को आप्त पुरुष कहा है। ऋषि दयानन्द द्वारा निर्मित आर्यसमाज के सातवें नियम ''सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये” का भी आचार्य जी ने उल्लेख किया। उन्होंने दूसरों से यथायोग्य व्यवहार करने के समर्थन में अपने विवेकपूर्ण विचार प्रस्तुत किये। पंडित वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि धर्म, संस्कृति तथा राष्ट्र की रक्षा के लिये सभी मनुष्यों को परस्पर यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये। उन्होंने कहा कि भारत का सम्राट अशोक यदि यथायोग्य व्यवहार का महत्व समझ जाता तो आज हमारे देश की जो दुर्दशा हो रही है, वह कदापि न होती। आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन में अहिंसा का वर्णन किया और कहा कि स्वामी जी संन्यासी थे इसलिये वह अपने प्रति हिंसा करने वालों के साथ भी अहिंसा का व्यवहार करते थे। ऐसा करना केवल संन्यासी के लिये ही उचित होता है। इसी कारण से उन्होंने अपने गुरुकुल कांगड़ी के ब्रह्मचारियों को अस्त्र, शस्त्र आदि की शिक्षा न देकर उन्हें वेदों का विद्वान व वेद प्रचारक बनाया था। 


           आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने श्रोताओं को वेद और स्मृति ग्रन्थों का अध्ययन करने की प्रेरणा की। उन्होंने बताया कि उनके पास 22 स्मृति ग्रन्थ हैं। आचार्य जी ने श्रोताओं को ऋषि दयानन्द और उनके प्रमुख शिष्यों स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, प. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, लाला लाजपतराय सहित देश के महापुरुषों, क्रान्तिकारियों व बलिदानियों का जीवन चरित्र पढ़ने की भी प्रेरणा की। उन्होंने कहा कि ऐसा करने पर आपको वैदिक धर्म का पालन करने की प्रेरणा मिलेगी। आचार्य जी ने कहा कि अपनी आत्मा की आवाज को सुनों तथा उसकी अवहेलना मत करो। ऐसा करना ही धर्म है। आचार्य जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के अनेक गुणों की चर्चा की व उन पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि देश की उन्नति वैदिक धर्म के प्रचार तथा देश में शिक्षा व विद्या की उन्नति के द्वारा ही सम्भव है। उन्होंने आगे कहा कि हमारे विद्यालय, महाविद्यालयों तथा विश्व विद्यालयों में जो पढ़ाया जाता है वह विद्या व सद्ज्ञान नहीं है। आचार्य जी ने कहा कि जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियता आदि की प्राप्ति हो, जीवन में इन गुणों की वृद्धि हो वह शिक्षा वा विद्या है। आचार्य जी ने समाज मन्दिर में उपस्थित सभी श्रोताओं को सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का नियमित स्वाध्याय करने की प्रेरणा की और कहा कि इससे अविद्या दूर होती है और मनुष्य सद्ज्ञान व विद्या को प्राप्त होता है। आचार्य जी ने यह भी कहा कि देश के विद्यालयों में पढ़ने वाले लोग धर्मात्मा नहीं बनते जबकि विद्या व शिक्षा का उद्देश्य लोगों को धर्मात्मा बनाना होता है। वैदिक विद्वान आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि आज के विद्यार्थियों में जो चारित्रिक दुर्बलतायें हैं वह गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति से अध्ययन करने वालों में नहीं होती हैं। 


          आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने कहा कि हम जो सीखते हैं उसे यदि जीवन में अपना लें व धारण कर लें तब वह विद्या बन जाती है। विद्वान मनुष्य ही सभ्य होता है। विद्या से मनुष्य सभ्यता को प्राप्त होता है। हमें व्यवहार करना आना चाहिये। सभ्य मनुष्य ही धर्मात्मा कहलाता है। धर्मात्मा मनुष्य ही जितेन्द्रिय बनता है। आचार्य जी ने याद दिलाया कि वेदों में मनुष्य को मनुष्य बनने, मनन करने, सत्यासत्य पर विचार करने और सत्य का ग्रहण तथा असत्य का त्याग करने की शिक्षा दी गई है। आचार्य जी ने कहा कि हमें अपने मन से लड़ना चाहिये। हमारे मन में जो बुरे विचार आते हैं उन्हें हमें स्वीकार नहीं करना चाहिये। आचार्य जी ने जीवन को सफल बनाने के लिये इन्द्रियों को वश में करने की आवश्यकता पर भी बल दिया। उन्होंने कहा कि दूसरों से लड़ना तो गधों से लड़ना है। आचार्य जी ने सबको जितेन्द्रिय बनने अर्थात् अपनी इन्द्रियों पर विजय पाने की प्रेरणा की। उन्होंने कहा कि हमें स्वामी श्रद्धानन्द जैसा बनना चाहिये। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण किया था जिससे वह जितेन्द्रिय, विद्वान व धर्मात्मा बने थे। आज भी उनका यश विद्यमान है। उनका यश वास्तविक यश है। किसी राजनीतिक दल द्वारा प्रसारित यश नहीं है। आचार्य वीरेन्द्र शास्त्री जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा देश की आजादी का नेतृत्व करने और उसमें अद्भुद शौर्य का प्रदर्शन करने के लिये दिल्ली के मुसलमानो ंद्वारा जामा मस्जिद में आमंत्रित कर उनका जामामस्जिद के मिम्बर से मुस्लिमों को वेदोपदेश रूपी सम्बोधन करने की घटना से परिचित कराया। आचार्य जी ने इस घटना का विस्तार से उल्लेख कर स्वामी जी की प्रशंसा की। समय अधिक हो गया था अतः आचार्य जी ने अपने वक्तव्य को विराम दिया। इसके बाद आर्यसमाज प्रेमनगर के प्रधान का समाज के सभी विद्वानों, अधिकारियों तथा सदस्यों ने ओ३म् के पटके को पहनाकर सम्मान किया। इसके बाद शान्ति पाठ हुआ। शान्ति पाठ के बाद सबने ऋषि लंगर ग्रहण किया। ओ३म् शम्।


-मनमोहन कुमार आर्य


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