आर्यसमाज और हरिजन-समस्या


आर्यसमाज और हरिजन-समस्या




         सन् १९८० में १९ मार्च से ३० अप्रैल तक पाँच सप्ताह की अनुज्ञा पर मैं उत्तरी बर्मा गया था। रंगून के भव्य आर्यसमाज मन्दिर में एक वाक्य अंकित था- 'अस्पृश्यता हिन्दू-जाति का सबसे बड़ा कलङ्क है' – महात्मा गांधी। अछूतपन की कहानी देश में बड़ी पुरानी है। एक भारतीय इतिहासज्ञ की यह बात मुझे जँची थी, नितान्त सत्यता इस बात में कितनी है, यह कहना कठिन है। उस इतिहास का यह संकेत था कि देश के गरीब तबके पर ब्राह्मणों ने अत्याचार किये। यह तबका शूद्रों में से था। जब शूद्रों पर अत्याचार हुए, तो ये बौद्ध हो गये। शंकराचार्य के बाद बौद्धों का ह्रास और ब्राह्मण वर्ग का प्रभुत्व बढ़ा। इन ब्राह्मणों ने बौद्धों को नगरों से निकालकर बाहर की सीमा पर खदेड़ा और उनसे नीच से नीच काम लेने लगे, यह वर्ग ही हमारा चमार, भंगी, पासी, चाण्डाल अछूत वर्ग है। मनुस्मृति में शुनां च पतितानां च श्वपचां ऐसे शब्द हैं, जिनका अर्थ पापी, चाण्डाल ऋषि दयानन्द ने किया है (मनु ३/९२)। असम, बंगाल और उड़ीसा में मुसलमानों के आते ही यह वर्ग मुसलमान हो गया, वहाँ जितने बौद्धों के प्रबल केन्द्र थे, वे सब मुस्लिम-प्रभुत्व के प्रदेश बन गये। इसीलिए असम, बंगाल, उड़ीसा में मुसलमानों की संख्या आज भी अधिक है।


      अत: देश के वर्तमान अछूत वे पददलित तिरस्कृत वर्ग हैं, जो बौद्ध थे और जिन पर ब्राह्मण वर्ग (द्विज) ने अत्याचार किये थे।


       मेहतर या भंगी का जन्मना पेशा करने वाला वर्ग भारत में ही पैदा हुआ, अन्य देशों में नहीं। प्राचीन भारत में शौचालय किस प्रकार के होते थे और उन्हें साफ करने वाले व्यक्ति का समाज में क्या स्थान था, यह कहना कठिन है। ऐसा लगता है, छोटी-छोटी बस्तियाँ होती थीं और नर-नारी समीप के खेतों और जंगलों में शौच करने जाते थे। अछूत या अस्पृश्य कोई व्यक्ति न था। मृत पशुओं के चर्म से अनेक उपयोगी सामान बनाये जाते थे और ये चर्मकार समाज के सामान्य व्यापारी अंग थे (वैश्य)- इनका परस्पर के सम्पर्क में कोई सामाजिक तिरस्कार न था।


     सामान्यतया वर्ग चार ही थे और सभी द्विजेतरों की गिनती शूद्र वर्ग में थी। शूद्र अस्पृश्य नहीं था। वह तीनों वर्गों की सेवा करता था और यजमान के परिवार में ही उसका पोषण होता था। उसमें निम्न गुण होते थे, तभी वह परिवार का अंग बन जाता था-


      १. परिवार के सदस्यों में वह सबसे अधिक बलिष्ठ, निरोग और स्वस्थ था। वह परम-साहसी था- जोखम के घटनास्थलों पर वह सबसे पहले पहुँचता था।


      २. रंग उसका कैसा ही हो, उसमें स्वस्थ सौन्दर्य था, अत: उसे परिवार के बच्चे नि:संकोच सौंपे जा सकते थे।


     ३. वह अत्यन्त विश्वसनीय और सदाचारी था, अत: परिवार में उसका निर्वाह हो सकता था और उसके विश्वास पर घर की सारी सम्पत्ति छोड़ी जा सकती थी।


      ४ . वह अत्यन्त विनम्र और विनयशील था, अत: शूद्रसेवक अतिथियों का स्वागत शिष्टता से करता था।


         द्विजों की अपेक्षा मानवीय गुण शूद्रों में अधिक थे। कमी यही थी कि वह शिक्षित-दीक्षित और मंत्र-पाठी न था।


        शूद्र शब्द ऋग्वेद में एक ही बार प्रयुक्त हुआ है (१०/९०/१२) और वह भी वही प्रसिद्ध मन्त्र, जो पुरुष-सूक्त से अन्य वेदों में आया- 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्' वाला मन्त्र। शूद्र विराट् पुरुष का पाद स्थानीय है- 'का ऊरू पादा उच्येते' के उत्तर में।


        मेरे एक विद्वान् मित्र ने शुच्-शोकार्थक (भ्वादि.) धातु से शुचेर्दश्च (उणादि. २/१९) सूत्र से रक् प्रत्यय, उकार को दीर्घ, च को द होकर शूद्र शब्द बनाने का दुरूह प्रयास किया है-


शूद्र: शोचनीय: शोच्यां स्थितिमापन्नो वा,


सेवायां साधूरविद्यादि गुणसहितो मनुष्यो वा।


        अर्थात् शूद्र वह व्यक्ति है, जो अपने अज्ञान के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को नहीं प्राप्त कर पाया और जिसे अपनी निम्न स्थिति होने की तथा उसे उन्नत करने की सदैव चिन्ता बनी रहती है। अथवा स्वामी के द्वारा जिसके भरण-पोषण की चिन्ता की जाती है, ऐसा सेवक मनुष्य। निम्न बातों से शूद्र की निम्नतर पदवी भी उन्नत हो जाती है-


विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।


शुश्रुषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैऽश्रेयस: पर:।।


शुचिरुत्कृष्ट शुश्रूषूर्मृदुवागनहंकृत:।


ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते।।


       अच्छे कुलीन परिवारों की सेवा करके शूद्र भी प्रतिष्ठा का स्थान पाते हैं।


        वर्तमान युग की सामाजिक व्यवस्था में अब चातुर्वण्र्य का प्रश्न केवल शास्त्रीय प्रश्न रह गया है। शनै: शनै: सभी परिवार साक्षर हो रहे हैं और देश के शासन में सभी को मताधिकार देने का समान अधिकार है। हरिजन, अस्पृश्य या अछूत शब्द सब संक्रान्ति काल के लिए हैं। भविष्य में न वर्णभेद जन्मना रह जायेगा, न गुण-कर्म-विभागाश्रित। इसे आप वर्ण-संकरता कहें या वर्ण-समन्वय या वर्ण-निरपेक्ष कहें, सब कुछ कह सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में हरिजन शब्द भी अब कोई अर्थ नहीं रखता है।


       आर्यसमाज ने निम्नवर्ग के समाज में जागृति लाने का कार्य प्रारम्भ से किया। दलित वर्ग के लोगों का यज्ञोपवीत कराया और उन्हें समस्त धार्मिक कृत्यों में स्थान दिया। वोट के अधिकार से यह अधिकार अधिक सम्मानपूर्ण था। आर्यसमाज ने अपनी संस्था के द्वार सबके लिए खोल दिए, यज्ञ करने-कराने का अधिकार देकर अन्त्यजों में से याज्ञिक तैयार कर डाले। मंै तो दिल्ली में देखता हूँ कि हमारे याज्ञिकों से विवाह आदि संस्कार कराने में किसी पौराणिक प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी संकोच नहीं होता। हमारे पुरोहितों से कोई नहीं पूछता कि वे जन्मना किस वर्ग के हैं।


      राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् सभी संस्थाएँ दलित वर्ग के व्यक्तियों को मन्दिरों में प्रवेश नहीं करा सकतीं। वे दलितों को पण्डित बन जाने पर भी बिड़ला जी के लक्ष्मीनारायण मन्दिर में पुजारी नहीं बना सकतीं और न वे उन्हें शंकराचार्य की गद्दी पर बिठा सकती हैं। हिन्दू मन्दिर में आप हरिजनों का एक बार बलात् प्रवेश करा भी दें, तो वे मन्दिर के प्राङ्गण को गंगाजल या गो-दुग्ध से धोकर पवित्र कर लेंगे। मैंने सुना था कि काशी के एक मन्दिर में जगजीवनराम जी के चले जाने पर ऐसा ही किया गया था।


        पुरी के शंकराचार्यों ने अभी हाल में हरिजनों के सम्बन्ध में अनर्गल बातें कहीं थीं।


        भाई अग्निवेश जी का मुझे २ जुलाई १९८८ का पत्र मिला है। वे चाहते हैंं कि मैं उनके साथ १० जुलाई के बाद नाथद्वारा में हरिजनों के साथ प्रवेश करने के लिए उदयपुर चलूं। मैंने जो उत्तर दिया है, उसकी प्रतिलिपि परोपकारी में प्रकाशनार्थ इस लेख के साथ भेज रहा हूँ।


         ''भाई अग्निवेश आपका २ जुलाई का पत्र मिला। आप अपने आन्दोलनों से इन मूर्ख शंकराचार्यों को प्रोत्साहित न करें। मैं हरिजनों को मन्दिरों में ले जाकर मूर्तिपूजक नहीं बनाना चाहता। आप प्रोत्साहित करें कि आर्यसमाज मन्दिरों में ये अधिक से अधिक संख्या में आयें। आर्यसमाज में प्रतिबन्ध न होने पर भी ये अधिक संख्या में क्यों नहीं आते- हम तो इन्हें अपने संगठनों में ऊँचे-से-ऊँचा स्थान भी देते हैं- ये पुरोहित, ब्रह्मा, ऋत्विक् आदि के कर्म भी करते हैं। मूर्ख हिन्दुओं को अतिमूर्ख शंकराचार्यों से निपटने दीजिए।''


         हिन्दू मन्दिरों में जाकर ये हरिजन पायेंगे भी क्या? क्या उनमें से कोई शंकराचार्य बनने का अधिकारी भी हो सकेगा?


        राष्ट्रीय पौराणिकों में यदि साहस हो तो वे घोषित करें कि जिन मन्दिरों में हरिजनों का प्रवेश करने का अधिकार न होगा, उनमें वे भी कभी नहीं जावेंगे, उनका वे बायकॉट करेंगे।


       दलित वर्ग की समस्या सुलझाने के कतिपय उपाय निम्न हैं-


      १. हरिजन शब्द का परित्याग तत्काल परम आवश्यक है।


     २. राजनीतिक संरक्षण की अवधि समाप्त होनी चाहिए। जिसके परिवार को एक बार संरक्षण मिला गया, दोबारा नहीं मिलना चाहिए।


     ३. नगर के बाहर की बस्तियों से इन्हें निकालकर अन्य नागरिकों के बीच में ही प्रतिष्ठापूर्वक बसाना चाहिए।


      ४. नगर की सडक़ों और शौचालयों को सा$फ करने का काम द्विज नागरिकों को भी साधना चाहिए (कूड़ा गाड़ी, मैला गाड़ी का परिवहन शुद्धतापूर्वक सभी वर्ग के शिक्षित व्यक्ति करें।)


      ५. आर्यसमाज के अधिवेशनों में सम्मानपूर्वक लाना चाहिए और निर्वाचनों में इन्हें उच्चतम पद उनकी योग्यतानुसार मिलने चाहिएँ।


     ६. फैक्ट्रियों में अन्य श्रमिकों के साथ इनकी भी भरती होनी चाहिए।


      ७. इनको यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए और इनके घरों में, संस्थाओं में सभी प्यार से सम्मिलित हों।


    ८. यज्ञों में इन्हें सब लोग अपने घरों में ऋत्विक् बनावें।



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