आर्य समाज के नियम

सभी को नमस्ते जी।
 आज हम आर्य समाज के 10 नियमों के विषय में चर्चा करेंगे।  यह नियम संसार भर के मनुष्यों के लिए और प्राणी मात्र के हित के लिए ऋषि ने बनाए। कुछ लोगों में भ्रांति हैं कि आर्य समाज एक अलग धर्म है, एक अलग पंथ है, एक अलग मत है, यह एक वर्ग विशेष के व्यक्तियों के लिए ही केवल सीमित है। इन नियमों का हम सम्यक अवलोकन करते हैं तो हम देखेंगे कि आर्य समाज के नियम संसार भर के मनुष्यों के कल्याण हेतू और प्राणी मात्र के कल्याण हेतू हैं। आइए प्रथम मंत्र का अवलोकन करते हैं। 
'सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।'
 इस प्रथम नियम में हम देखते हैं कि संसार भर की जितनी भी विद्याऐं हैं उनका वर्णन आया है। दूसरा जो संसार में तीन पदार्थ हैं उनका वर्णन आया है, और तीसरा इन सबके आदि मूल परमेश्वर का वर्णन आया है। तो इन तीनों चीजों को समझने के लिए सबसे पहले हमें विद्या को समझना होगा, कि विद्या क्या है?
 महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में योग दर्शन के सूत्र को लिखते हुए विद्या को समझाया है।
"अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या"
अर्थात अनित्य में अनित्य और नित्य में नित्य, अपवित्र में अपवित्र और पवित्र में पवित्र, दुख में दुख और सुख में सुख, अनात्मा में अनात्म और आत्मा में आत्मा का ज्ञान होना ही विद्या है।
 महर्षि आगे और स्पष्ट करते हैं कि जिससे पदार्थों का यथार्थ स्वरूप बौद्ध होवे वह विद्या है। अर्थात पाषाण आदि जड़ मूर्ति को चेतन मान लेना यह अविद्या का लक्षण है। जड़ को जड़ और चेतन को चेतन मानना यह विद्या हैं।
 दूसरा इस मंत्र में पदार्थ शब्द आया है। वेदों में तीन अनादि पदार्थ हैं। ईश्वर, जीव और प्रकृति। इसको त्रैतवाद भी कहा जाता है। अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में ऋषि दयानंद सरस्वती ने ऋग्वेद का प्रमाण दिया है। जिससे ईश्वर जीव और प्रकृति इन तीनों की सत्ता अलग-अलग सिद्ध हो जाती है।
"द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं  स्वाद्वत्त्यनश्न्न्नन्यो अभि चाकशीति।।"
 अर्थात -  इस मंत्र का भाव है कि एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हुए हैं। एक उस वृक्ष के फलों को स्वाद ले ले कर खा रहा है, और दूसरा पक्षी केवल दृष्टा मात्र है। यहां जो पक्षी फलों को खा रहा है वह जीवात्मा है, अर्थात वह प्रकृति का उपभोग करता है। जो वृक्ष है यह प्रकृति का प्रतीक है। और जो दृष्टा पक्षी है वह परमात्मा है जो सब के कर्मों को यथावत देखता रहता है और उनके यथावत फल देता है। इस प्रकार ईश्वर जीव और प्रकृति तीनों की सत्ता अलग-अलग वेद के इस प्रमाण से सिद्ध हो जाती है।
 तीसरा शब्द परमेश्वर है।
 महर्षि दयानंद सरस्वती ने 'स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश' में  लिखा है कि "जिसके ब्रम्हा परमात्मा आदि नाम हैं, जो सच्चिदानंद आदि लक्षण युक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव, पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनंत, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवो को कर्मानुसार सत्य न्याय से फल दाता आदि लक्षण युक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।"
 सत्यप्रकाश के सातवें समुल्लास में योग दर्शन के सूत्र  का प्रमाण देते हुए ऋषि लिखते हैं -
"क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।"
अर्थात जो अविद्या आदि क्लेश, कुशल-अकुशल, इष्ट-अनिष्ट, और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवो से विशेष ईश्वर कहता है। 
 यदि इस प्रथम नियम को हम सब ठीक-ठीक समझ लें, ईश्वर, जीव, प्रकृति को हम ठीक ठीक जान लें, विद्या और अविद्या के स्वरूप को हमर जान लें तो हम सबका कल्याण निश्चित है । अतः हम सबको अनादि पदार्थों को ठीक-ठीक समझना चाहिए, विद्या और अविद्या के स्वरूप को ठीक-ठीक समझना चाहिए। यह किसी एक मत पंथ विशेष के लिए नहीं, बल्कि मनुष्य मात्र के लिए हितकर नियम है। अतः सभी मनुष्यों को बिना किसी राग द्वेष के इस नियम को ठीक-ठीक समझना और इसका पालन करना चाहिए।
 ओ३म्
  आर्य कृष्ण 'निवाड़ी' 
          अध्यक्ष 
राष्ट्रीय आर्य निर्मात्री सभा 
   जनपद गाजियाबाद
    ८९३७०७१८८२


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