आर्य समाज का आठवां नियम

आर्य समाज का आठवां नियम


           आज आर्य समाज के आठवें नियम पर विचार करेंगे। आर्य समाज का आठवां नियम यह है - 
 "अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।" 
             इस नियम में दो बातों पर विशेष बल दिया गया है १ - अविद्या का नाश करना और 
२ - विद्या की वृद्धि करना। अविद्या के नाश करने के लिए सर्वप्रथम हमें अविद्या को जानना होगा तभी हम उसका नाश कर पाएंगे। और विद्या की वृद्धि के लिए विद्या को जानना होगा तभी हम उसकी वृद्धि कर पाएंगे।
            महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में योग दर्शन के सूत्र को लिखते हुए विद्या और अविद्या को समझाया है।
"अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या"
              अर्थात - जो अनित्य संसार और देह आदि में नित्य अर्थात जो कार्य जगत देखा, सुना जाता है, सदा रहेगा, सदा से है, और योग बल से यही देवों का शरीर सदा रहता है वैसी विपरीत बुद्धि होना अविद्या का प्रथम भाग है। अशुचि अर्थात मलमय स्त्री आदि के शरीर और मिथ्या भाषण, चोरी आदि अपवित्र में पवित्र बुद्धि दूसरा, अत्यंत विषय सेवनरूप दुख में सुख बुद्धि आदि तीसरा, अनात्मा में आत्मा बुद्धि करना अविद्या का चौथा भाग है। यह चार प्रकार का विपरीत ज्ञान अविद्या कहाती है।
             इसके विपरीत अर्थात अनित्य में अनित्य और नित्य में नित्य, अपवित्र में अपवित्र और पवित्र में पवित्र, दुख में दुख और सुख में सुख, अनात्मा में अनात्म और आत्मा में आत्मा का ज्ञान होना ही विद्या है।
 महर्षि आगे और स्पष्ट करते हैं कि जिससे पदार्थों का यथार्थ स्वरूप बौद्ध होवे वह विद्या है। अर्थात पाषाण आदि जड़ मूर्ति को चेतन मान लेना यह अविद्या का लक्षण है। जड़ को जड़ और चेतन को चेतन मानना यह विद्या हैं।


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