अन्तर्मुखी
*ओ३म्*
पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ्क पश्चयति नान्तरात्मन् |
कश्चिधीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुर्मृतत्वमिच्छन् ||
[ कठोपनिषद - 4 / 1 ]
स्वयंभू , अर्थात उस परमेश्वर ने इन्द्रियों को शरीर के बाहर की तरफ क्रियाशील बनाया है , इसलिए मनुष्य बाहर की तरफ देखता है , अंदर की तरफ नहीं | अमृत को चाहने वाला कोई धीर पुरुष ही होता है जो बाहरी विषयों की अपनी आँखें बंद कर ले , और बाहर की तरफ से मुड़कर अंदर की ओर आत्मा को देखता है | जो बाहरी विषयों को अनदेखा करते हुए आत्मा को देखे वही ' अंतर्मुखी ' कहलाता है |