०६ निष्क्रमण संस्कार

 


                                                       


निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकलना। घर की अपेक्षा अधिक शुद्ध वातावरण में शिशु के भ्रमण की योजना का नाम निष्क्रमण संस्कार है। बच्चे के शरीर तथा मन के विकास के लिए उसे घर के चारदीवारी से बाहर ताजी शुद्ध हवा एवं सूर्यप्रकाश का सेवन कराना इस संस्कार का उद्देश्य है। गृह्यसूत्रों के अनुसार जन्म के बाद तीसरे शुक्ल पक्ष की तृतीया अर्थात् चान्द्रमास की दृष्टि से जन्म के दो माह तीन दिन बाद अथवा जन्म के चौथे माह में यह संस्कार करे।


इसमें शिशु को ब्रह्म द्वारा समाज में अनघ अर्थात् पाप रहित करने की भावना तथा वेद द्वारा ज्ञान पूर्ण करने की भावना अभिव्यक्त करते माता-पिता यज्ञ करें। पति-पत्नी प्रेमपूर्वक शिशु के शत तथा शताधिक वर्ष तक समृद्ध, स्वस्थ, सामाजिक, आध्यात्मिक जीने की भावनामय होकर शिशु को सूर्य का दर्शन कराए। इसी प्रकार रात्रि में चन्द्रमा का दर्शन उपरोक्त भावना सहित कराए। यह संस्कार शिशु को आकाश, चन्द्र, सूर्य, तारे, वनस्पति आदि से परिचित कराने के लिए है।


आयुर्वेद के ग्रन्थों में कुमारागार, बालकों के वस्त्र, उसके खिलौने, उसकी रक्षा एवं पालनादि विषयों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। कुमारागार ऐसा हो जिसमें अधिक हवा न आती हो किन्तु एक ही मार्ग से वायु प्रवेश हो। कुत्ते, हिंसक जन्तु, चूहे, मच्छर, आदि न आ सकें ऐसा पक्का मकान हो। जिसमें यथास्थान जल, कूटने-पीसने का स्थान, मल-मूत्र त्याग के स्थान, स्नानगृह, रसोई अलग-अलग हों। इस कुमारागार में रक्षा के समस्त साधन, मंगलकार्य, होमादि की सामग्री उपस्थित हों। बच्चों के बिस्तर, आसन, बिछाने के वस्त्र कोमल, हल्के पवित्र, सुगन्धित होनें चाहिए। पसीना, मलमूत्र एवं जूं आदि से दूषित कपड़े हटा देवें। बरतन नए हों अन्यथा अच्छी प्रकार धोकर गुग्गुल, सरसौं, हींग, वच, चोरक आदि का धुंआ देकर साफ करके सुखाकर काम में ले सकते हैं। बच्चों के खिलौने विचित्र प्रकार के बजनेवाले, देखने में सुन्दर एवं हल्के हों। वे नुकीले न हों, मुख में न आ सकनेवाले तथा प्राणहरण न करनेवाले होनें चाहिए।


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