अन्त्येष्टी संस्कार


अन्त्येष्टी संस्कार 


 


        भारत में प्राचीन काल से ही अन्त्येष्टी क्रिया को एक रूप में किया जाता है, जिसकी एक निश्चित विधि भी की संसार में अन्तिम संस्कार की प्रायः चार विधियां प्रचलित लोग मृतक शरीर को भूमि में गाडते हैं , कुछ इसे नदी में हैं, कुछ इसे खुली हवा में रख देते हैं ताकि पक्षी अथवा जीवन खा कर अपनी क्षुधा की तृप्ति कर लेवें तथा कुछ ऐसे भी समह १ जो मृतक शरीर को जला कर राख में बदल देते हैं। इन चारों विपिन पर विचार करने पर जो विधि उत्तम दिखाई देती है, वह है जला वाली विधि । हमारे ऋषियों ने जो कुछ भी किया अथवा जो कुछ भी करने का आदेश दिया, वह सदैव विज्ञान सम्मत होता था। वैदिक,भारतीय पद्धति में मृतक शरीर को जलाने के आदेश दिये, इसके पीछे भी विज्ञान ही काम करता है। आओ हम इस पर कुछ विचार करें :-


 जल में बहाना :-


       संसार की कुछ जातियां मृतक शरीर को पानी में बहाने की परम्परा को अपनाए हुए हैं। उनका कहना है कि इससे जलीय जीव अपने उदर की पूर्ति कर पावेंगे। जब हम इस पर विचार करते हैंइसके कई दोष हमें दिखाई देते हैं । यथा इससे पानी दूषित हो जावेगा। इसे जल के जीवों के खाने पर बहुत से टुकडे पानी में मिल जाने से यदि मृतक शरीर किसी भयंकर व्याधि से पीडित था तो वह व्याधि भी इस पानी का प्रयोग करने वाले तक पहुंच जावेगी। शरीरको खाने के पश्चात् जो हड्डियों पर कुछ मांस के टुकडे रह जावें गे तो वह भी व्याधि फैलाने का कारण बने गे। इस कारण अन्तिम संस्कार की यह क्रिया उत्तम नहीं है। 


 वायु में रखना :-


        जो लोग पक्षियों के भोजन के लिए मृतक के शरीर को वायु में रख देते हैं, उनमें भी वही दोष होता है। व्याधि फैलती है, सडांद आती है तथा मांस युक्त हड्डियां इधर उधर फैल जाती हैं | 


भूमि में गाडना :-


       भूमि में गडे शरीर को भी पशु जमीन से निकाल लेते हैं तथा मृतक शरीर को बैंचते हुए उस के शरीर के टुकड़े इधर उधर बिखेरते रहते हैं। इस प्रकार उापर्युक्त हानियां तो होती ही हैंइन के अतिरिक्त एक अन्य भयंकर हानि मृतक को गाडने की यह है कि प्रथम तो गाडने से भूमि नष्ट होती है। जहां शरीरको गाडा गया है, वहां की भूमि का कोई अन्य प्रयोग नहीं रह जाता, जिससे भूमि की कमी आ जाती है। दूसरे कुछ गन्दी प्रकार के कलुषित लोग गाडे गए शरीर को निकाल कर उसके साथ कुचेष्टाएं करते भी देखे गए हैं,जो अत्यन्त घृणित कार्य है। 


      अतः मृतक शरीर को गाडना न केवल व्याधि का कारण है पतु नैतिकता के पतन व भूमि के नाश का भी कारण भी है। 


 मम्मियों में सस्रक्षित रखना :-


        मिश्र आदि में मृतक शरीर की मम्मी बना क्छ सुरक्षित रखने की परम्परा रही है। इसके साथ बहुत सा सामान भी रखा जाता था, जिसे चुराने के लिए लुटेरे लोग कबरों तथा मम्मियों को तोडते भी देखे गए हैं। उनका मानना रहा है कि मृतक का सम्बन्ध इस संसार से समाप्त नहीं होता । इस कारण उस का शरीर सुरक्षित रखा जाना चाहिये। इन्हें पिरामिडों में औषधियों के साथ रखा जाता था। इनकी पत्नियां , नौकर चाकर व आवश्यक सामान भी साथ में दफना दिया जाता था। यह सब भी बेकार ही है | 


      मृतक दाह : भारतीय वैदिक परम्परा मृतक शरीर का दाह संस्कार करना या जलाना ही विश्व में मृतक का सर्वोत्तम संस्कार हैइससे न तो जल दूषित होता है, न वायु तथा न ही भूमि ही दूषित होती है। मात्र छ : फुट के स्थान पर चाहे सारे संसार का दाह संस्कार कर दो। इस से नैतिकता का पतन भी नहीं होता। मृतक के शरीर में यदि कोई रोग रहा होगा तो वह भी जल जावेगा तथा वायु मण्डल साफ हो जावेगा। 


        विश्व में अन्तिम संस्करका यह वैदिक विधान ही सर्वोत्तम है । जिन पंचतत्त्वों से शरीर का निर्माण हुआ है , मृत्यु के पश्चात् उन्हीं पंचतत्त्वों में मानव विलीन हो जाता है। आज विश्व के अनेक देशों ने विधि से इस परम्परा का अनुकरण करने का प्रयास किया है। यरोप व अमरीका में इस हेतू विधि भी बने। रोम के आधिपत्य काल में वहां मदों को जलाया जाता था। उन्हीं को देख कर वहां विचार उठा । यह परम्परा उन्हें ग्रीस से मि परम्परा उन्हें ग्रीस से मिली थी, जो भारत से सावित रहा था। ईसाईयत के प्रचारने मृतक शरीर को जलाने पर लगाई। अब तो चीन जैसे देश भी हाह विधि अपना रहे हैं । शव से प्रभावित होकर इंग्लैंड में शवदाह सोसायटी बनी। गर थाम्परान डरा हेत एक पुस्तक भी लिखी। तात्कालीन इंग्लैंड के विचारकों ने पर थाम्पसनके विचारों को समर्थन किया। यहा १३ जनवरी १८७८ किमेशन सोसायटी आफ इंग्लैंड की स्थापना हुई। इस संस्था के प्रयास से १८७८ के लगभग सरे नामक स्थान पर प्रथम शव दाह ग्रह स्थापित किया गया। १८८३ में वहां इसे वैधानिक स्वीकृति मिली१९०२ में वहां एतदर्थ विधेयक भी पास किया गया। आज वहां दो सौ से भी अधिक मृतक दाह गृह हैं। इसी प्रकार कन्टेनेवियन देशों ,न्यूजीलैण्ड ,आस्ट्रेलिया में भी ऐसे विधि बने । अमेरिका में भी १८७६ से शव दाह आरम्भ हुआ। यहां भी आज तीन सौ से अधिक शव दाह केन्द्र हैं। इतना ही नहीं यूरोप व अमेरिका के प्रायः सभी देशों में शवदाह संस्थाएं बन गई हैं। इन्हों ने अन्तर्राष्ट्रीय शवदाह संगठन भी बना लिया। जिस का लंदन मुख्यालय बना। इनकी शवदाह को प्रोत्साहन देने के लिए त्रैवार्षिक कान्फेंस भी होती है। इससे स्पष्ट है कि विश्व में भारतीय वैदिक शव दाह प्रथा को अपनाने की होड़ सी लग गई है। यही इसकी श्रेष्ठता का परिचायक है। इसका मुख्य कारण तो भूमि की बचत है ही। साथ ही अन्य भी कुछ कारण इस प्रकार हैं:


      मृतक के रोगों से वाय मण्डल दूषित नहीं होता, निकट से निकलने वाले जल में भी दोष नहीं आता , अब शरीरको पशु उखाड नहा पाते। इससे रोगाणु फैलने का भय समाप्त हो जाता है । कफन स बचा जा सकता है तथा अनाचारकी घटनाएं नहीं हो सकती।, मात्रा में भूमि की बचत होती है, जिसे विकास के अन्य कार्यों में उपयोग में लाया जा सकता है। इससे कब्र पूजा खयमेव ही समाप्त हो जाती है। इस से कमाई खाने वाले अब समाज के उत्थान में लगेंगेअनेक पाखण्डों की समाप्ति होती है। इन कबरों तक आने जाने वार चढावा चढाने से होने वाले व्यय की बचत होती है, जिससे विकास अन्य विकास कार्यों के लिए संसाधन सभव हो पाते हैं । हमारे यहां ही नहीं विश्व में अरबों रुपए के व्यय से सहस्रों मकबरे बने हैं। यदि मुर्दा जलाने की प्रथा को अपनाया जावे तो इन मकबरों पर होने वाले व्ययार को बचाकर इसे राष्ट्रोत्थान के कार्यों पर व्यय किया जा सकेगा। अनेक लोग तो कबरों से मुर्दे निकाल कर उनसे कुकर्म करते हैं तथा अनेकालोग इन कबरों के एकान्त में इन पर बैठ कर जुआ खेलने व शराबपीने जैसे भद्दे काम भी करते हैं। ऐसे लोगों से भी कुछ तो छुटकारा पाया ही जा सकेगा। 


      अतः मानवीय स्वास्थ्य की रक्षा के साथ ही साथ भूमि की कमी को दूर करने व विपुल धन सम्पत्ति को मुर्दे को मात्र जलाने से ही बचाया जा सकता है। संस्कृत में तो मृत्यु के लिए कहा भी गया है कि पञ्चतत्व में विलीन हो गया। इस का भाव है कि यह शरीर पृथ्वी , वायु, जल, अग्नि तथा आकाश के मेल से बना है। मृत्यु के पश्चात् इसे जितनी शीघ्रता से इन्हीं पांचों तत्वों के रूप में बदला जा सके उतना ही अच्छा है। इसे शीघ्र ही इन पांच तत्वों में बदलने का साधन अग्नि में जलाना ही है। अन्य कोई साधन नहीं है। इसी साधन से ही यह कार्य शीघ्र हो पाता है। इस लिए हमारे ऋषियों ने दाह कर्म को ही इस हेतु सर्वोत्तम कर्म स्वीकार किया है। अथर्ववेद के अध्याय १८, सूक्त २ मन्त्र ३८ में भी इसी बात के ही स्पष्ट निर्देश दिये गए हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने तो इस की विधि भी निर्धारित की है तथा लिखा हैसम्पन्न मृतक व्यक्ति बाह संस्कार में किया वसके। आज की महंगाई तक व्यक्ति के भार के बराबर घी व सामग्री का प्रयोग कार में किया जावे ताकि वायु मण्डल पूरी तरह से शुद्ध हो की महंगाई को देखते हुए इतना तो सम्भव नहीं हो पा रहा यथाशक्ति जितना अधिक से अधिक घी सामग्री, केसर कपूर का प्रयोग सम्भव हो सके किया जावे ताकि वायु मण्डल रोग मुक्त तथा मृतक व्यक्ति के रोगाणुओं का किसी अन्य पर प्रभाव न हो सके ।


      वैदिक भारतीय संस्कृति कितनी महान् है, जिसने मरने पर भी सम्पूर्ण विश्व के भले की कामना करते हुए इस के पार्थिव शरीर को दबाने, जल में फेंकने या खुले में रखने के स्थान पर दाह कर्म की पद्धति रचकर सर्व संसार के सुख की कामना ही की है। हमारे ऋषि जानते थे कि जल में मृतक को डालने से, कबर में दफनाने से तथा वायु मण्डल में मुर्दे को खुला रखने से न केवल उसके रोगाणु फैल कर विनाश का कारण बनते हैं, लोगों को बुरे कार्य करने को प्रेरित करते , भूमि की कमी का कारण बनते हैं, अपितु मृतक को शीघ्र पंच तत्त्व में विलीन होने में भी बाधक होते हैं। इसीलिए उन्हों ने इन सब से दाह संस्कार को ही उत्तम माना । यह उनकी महान् विजय ही है जो आज विश्व के बडे बडे देश भी न केवल सामाजिक व्यवहार से अपितु विधि से भी इसे स्वीकार करने लगे हैं | 


 


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