योगी दयानन्द


योगी दयानन्द


          ब्रह्मचर्य और तप के बल से ही मृत्यु को जीता जाता है। इसी से महर्षि दयानन्द ने घोर तप किया था। योग में उनका अभ्यास इतना बढ़ा हुआ था कि वे अठारह-अठारह घंटे की समाधि लगा लेते थे। उन्होंने भूख-प्यास और गरमी-सरदी सबको जीत लिया था। पौष-माघ का कड़कड़ाता जाड़ा पड़ता था। जोहड़ों का जल जम जाता था। परन्तु तपस्वी दयानन्द केवल एक कौपीन पहने गंगा की अत्यंत ठंडी बालू पर पद्मासन लगाये सारी-सारी रात बिता देते थे। महाराज को इस अवस्था में देखकर यदि कोई भक्त उन पर कम्बल भी डाल जाता तो वे उसे नहीं ओढ़ते थे।


          एक समय की बात है। माघ का महीना था। पछुवा का अत्यन्त शीतल पवन बड़े वेग से बह रहा था। स्वामीजी महाराज स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर कुटी के बाहर पलथी मारे बैठे थे। बहुत से ठाकुर लोग दर्शनों के लिए आये हुए थे। उन्होंने रुई और ऊन के निहायत गरम कपड़े पहन रक्खे थे, फिर भी जाड़े के कारण उनका शरीर काँप रहा था। हाथ-पाँव ठिठुर रहे थे। दाँत से दाँत बज रहे थे। परन्तु स्वामीजी महाराज बड़े जोर-शोर से बराबर उपदेश कर रहे थेशीतल वायु तीर की तरह तन को चीरती जाती थी, किन्तु वे काँपते तक न थे। 


        उस समय ठाकुर गोपालसिंहजी ने हाथ जोड़ कर पूछा- महाराज, हम इतने कपड़े पहनने पर भी सरदी के मारे सिकुड़े जा रहे हैं, परन्तु आप पर शीत का कुछ भी असर नहीं होता। इसका कारण क्या है?


         महाराज ने उत्तर दिया-ब्रह्मचर्य और योगाभ्यास ही इसका कारण है। उसने कहा-तो हम कैसे जानें?


          तब महाराज ने अपने हाथों के अँगूठे घुटनों पर रख कर इस जोर से दबाये कि तत्काल उनके मस्तक पर, ओस के बिन्दुओं के सदृश, पसीनेकी बूंदे चमकने लगीं। तन पर रमाई हुई सारी मिट्टी भीग गई। वगलों में से पसीना टपटप करके टपक पड़ा। यह देख सभी लोग स्वामीजी महाराज के योगबल की प्रशंसा करने लगे। कर्णवास से चलकर स्वामीजी ग्राम-ग्राम में घूमने लगेएक रात आप गंगा के दूसरे किनारे समाधि लगाये बैठे थे। रात अधिक बीत चुकी थी। इसलिए गंगा के बहने के सिवा और कोई शब्द न सुनाई देता थाचन्द्रमा की चाँदनी खूब छिटक रही थी। उससे पृथिवी और आकाश प्रकाशमान हो रहे थे। इसके साथ गंगा की धारा नीलम की लंबी रेखा के समान दृश्य के सौन्दर्य की ओर भी बढ़ा रही थी। ऐसे समय में बदायूँ के कलेक्टर साहब अपने किसी यूरोपियन मित्र को साथ लिये शिकार की तलाश में गंगा-तीर पर फिर रहे थे। अचानक उनकी दृष्टि उस स्थान पर जा पड़ी जहाँ स्वामीजी महाराज योगाभ्यास कर रहे थे। वे उनके निकट जा पहुँचे। चाँदी के सफेद सिंहासन पर जैसे सोने की मूर्ति धरी हो, उसी प्रकार स्वामीजी महाराज के चमकते दमकते शरीर को उन्होंने सफेद रेत पर बैठे देखा। वे देर तक आश्चर्य के साथ संन्यासी के सुन्दर रूप को देखते रहे। अन्त को जब महाराज ने आँखें खोली तो कलेक्टर महोदय ने नमस्कार कियाचलते समय उन्होंने स्वामीजी से कहा कि हमें बड़ा आश्चर्य है कि इतनी सरदी पड़ रही है; नदी का किनारा है; रात का समय है, और आप बर्फ के समान ठंडी रेत पर एक लँगोट-मात्र पहने मग्न बैठे हैं। क्या आप को जाड़ा नहीं लगता?


        स्वामीजी उत्तर देना ही चाहते थे कि कलेक्टर साहब का पादरी साथी बीच में बोल उठा, "खूब मोटा-ताजा मनुष्य है। खाने को अच्छे माल मिलते होंगे। इसे जाड़ा क्या करेगा?"


        स्वामीजी ने हँस कर कहा, “हम दाल चपाती खानेवाले क्या माल खायँगे। आप अंडा-मुरगी आदि गरम चीजें खाते हैं। आइए, अपने कोट और पोस्तीने उतार कर मेरे साथ नंगे    बैठिए।"


        इस पर वह पादरी शर्मिन्दा हो गया।सुन्दरलाल अपने मित्रों को लेकर स्वामीजी के पास गये। महाराज उस समय ध्यान में मग्न थे। इसलिए वे सब चुपचाप बैठे रहे। कोई आध घंटे के बाद महाराज भीतर से बाहर आये। उन सब सज्जनों ने झुक कर प्रणाम किया। इस समय स्वामीजी आप ही आप हँस रहे थे। पण्डित सुन्दरलालजी ने पूछा, “आप किस बात पर हँस रहे हैं?"


       महाराज ने उत्तर दिया, “एक मनुष्य मेरी ओर आ रहा है। आप कुछ देर यहाँ ठहरिएउसके आने पर आपको एक तमाशा दिखाई देगा।" ___


       इस बात के आध घड़ी बाद एक ब्राह्मण मिठाई लिये आ पहुँचा। उसने स्वामीजी को 'नमो नारायण!' करके मिठाई भेंट की और कहा, 'इसमें से थोड़ा सा भोग लगाइए।" __


       स्वामीजी ने उससे कहा, “लो, थोड़ी सी मिठाई तुम भी खाओ।" किन्तु उसने न ली। तब महाराज ने उसे डाँट कर कहा-लेते क्यों नहीं हो? वह काँपने लगा, परन्तु मिठाई फिर भी न ली। तब स्वामीजी ने कहा-यह मनुष्य हमारे लिए मिठाई में विष मिला कर लाया है।


       पण्डित सुन्दरलालजी उसके लिए पुलिस बुलवाने लगे। परन्तु महाराज ने कहा-देखो, यह अपने पाप के कारण कितना काँप रहा है। इसे पर्याप्त दण्ड मिल गया हैइसलिए पुलिस न बुलवाइए। स्वामीजी ने उस ब्राह्मण को उपदेश करके विदा कर दिया। राय साहब ने थोड़ी सी मिठाई कुत्ते को डाली। वह खाते ही छटपटा कर मर गया।


       उदयपुर की बात है। एक दिन राना सज्जनसिंहजी और स्वामीजी के शिष्य सहजानन्दजी आदि कई सज्जन महाराज के पास बैठे थे। महाराज ने श्रीरानाजी से कहा-पण्डित सुन्दरलालजी यहाँ आ रहे हैं। यदि पहले सूचना दे देते तो उनके लिए सवारी का उचित प्रबंध कर दिया जाता। _रानाजी ने निवेदन किया-भगवन् अब भी गाड़ी भेजी जा सकती हैइस पर स्वामीजी ने कहा-अब तो वे बैल गाड़ी में आ रहे हैं। गाड़ी का एक बैल सफेद और दूसरा चितकबरा है। वे कल यहाँ पहुँच जायेंगे। महाराज का कहना अगले दिन बिलकुल ठीक निकला।


 


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।