योग अथवा उपासना योग


योग अथवा उपासना योग


 


(महर्षि दयानन्द कृत 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के आधार पर)


योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। (योगदर्शन)


      अर्थ-चित्त की वृत्तियों को सब बुराईयों से हटा के शुभ गुणों में स्थिर करके. परमेश्वर के समीप में मोक्ष को प्राप्त करने को योग कहते हैं। और वियोग उसको कहते हैं कि परमेश्वर और उसकी आज्ञा से विरुद्ध बुराईयों में फंस के उससे दूर हो जाना।


      चित्त की वृत्ति को रोकने के उपाय-(एक) जैसे जल के प्रवाह को एक ओर से दृढ़ बांध के रोक देते हैं तब वह जिस ओर नीचा होता है उस ओर चल के कहीं स्थिर हो जाता है। (दूसरा) उपासक योगी और संसारी मनुष्य जब व्यवहार में प्रवृत्त होते हैं तब योगी की वृत्ति तो सदा हर्ष शोक रहित आनन्द से प्रकाशित होकर उत्साह और आनन्दयुक्त रहती है और संसार के मनुष्य की वृत्ति सदा हर्ष शोक रूप दुःखसागर में ही डूबी रहती है। उपासक योगी की वृत्ति तो ज्ञानरूप प्रकाश में सदा बढ़ती रहती है और संसारी मनुष्य की वृत्ति सदा अन्धकार में फंसती जाती है।


      योगदर्शन के अनुसार उपासना योग के आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।


      १. यम-पांच प्रकार का है। अहिंसा-सब प्रकार से, सब काल में, सब प्राणियों के साथ बैर भाव छोड़ के प्रेम से वर्तना। सत्य-जैसा अपने ज्ञान में हो वैसा ही सत्य बोले करे और माने। अस्तेय-स्वामी की आज्ञा के बिना किसी के पदार्थ की इच्छा भी न करना इसे चोरी त्याग कहते हैं। ब्रह्मचर्य-वीर्य रक्षा, जितेन्द्रिय होना, परस्त्री; वेश्या आदि का त्याग, ऋतुगामी होनाअपरिग्रह-अत्यन्त लोलुपता. का त्याग; आवश्यकता से अधिक पदार्थ अपने पास न रखना।


      २. नियम-पांच प्रकार का है। शौच-पवित्रता करनी, सो भी दो प्रकार की है। एक भीतर की और दूसरी बाहर की। भीतर की शुद्धि धर्माचरण, सत्यभाषण, विद्याभ्यास, सत्संग आदि शुभ गुणों के आचरण से और बाहर की पवित्रता जल आदि से शरीर, स्थान, मार्ग, वस्त्र, खाना-पीना आदि शुद्ध करने से होती हैं। सन्तोष-ईमानदारी से पूरी मेहनत करके प्रसन्न रहना और दुःख में दुःखी न होना, किन्तु आलस्य का नाम सन्तोष नहीं। तप-जैसे सोने को अग्नि में तपा के निर्मल कर देते हैं वैसे ही आत्मा और मन को धर्माचरण और शुभ) गुणों के आचरण रूप तप से निर्मल कर देनास्वाध्याय-वेद आदि सत्य शास्त्रों का अध्ययन और मनन। ईश्वर प्रणिधान-सब सामर्थ्य, सब गुण, प्राण, आत्मा और मन के प्रेमभाव से आत्मा आदि सत्य द्रव्यों को ईश्वर के लिए समर्पण करना।


       ३. आसन-जिसमें सुख से बैठकर ईश्वर से योग हो सके अर्थात् जिसमें सुखपूर्वक शरीर और आत्मा स्थिर हो उसको आसन कहते हैं। अथवा जैसे रुचि हो वैसा आसन करें। जब आसन दृढ़ होता है तब उपासना करने में कुछ परिश्रम करमा नहीं पड़ता है, न सर्दी गर्मी अधिक बाधा करती है।


       ४. प्राणायाम-'प्राणायाम' विषय देख लेवें।


       ५. प्रत्याहार-उसका नाम है कि जब पुरुष अपने मन को जीत लेता है तब इन्द्रियों का जीतना अपने आप हो जाता है क्योंकि मन ही इन्द्रियों का चलाने वाला है तब वह मनुष्य जितेन्द्रिय होके जहां अपने मन को ठहराना वा चलाना चाहे उसी में ठहरा और चला सकता है। फिर उसको ज्ञान हो जाने से सदा सत्य में ही प्रीति हो जाती है, असत्य में कभी नहीं।


        ६. धारणा-उसको कहते हैं कि मन को चंचलता से छुड़ा के नाभि, हृदय, मस्तक. नासिका और जीभ के अग्रभाग आदि देशों में स्थिर करके ओंकार का जप और उसका अर्थ जो परमेश्वर है उसका विचार करना।


        ७. ध्यान-धारणा के पीछे उसी देश में ध्यान करके और आश्रय लेने के योग्य जो अन्तर्यामी व्यापक परमेश्वर है उसके प्रकाश और आनन्दं में अत्यन्त विचार और प्रेम भक्ति के साथ इस प्रकार प्रवेश करना कि जैसे समुद्र के बीच में नदी प्रवेश करती है। उस समय में ईश्वर को छोड़ किसी अन्य पदार्थ का स्मरण नहीं करना किन्तु उसी अन्तर्यामी के स्वरूप और ज्ञान में मग्न हो जाना।


       समाधि-जैसे अग्नि के बीच में लोहा भी अग्निरूप हो जाता है इसी। परमेश्वर के ज्ञान में प्रकाशमय हो के, अपने शरीर को भी भूले हुए के समान के आत्मा को परमेश्वर के प्रकाश स्वरूप आनन्द और ज्ञान से परिपूर्ण करने के समाधि कहते हैं। ध्यान और समाधि में इतना ही भेद है कि ध्यान में तो ध्यान कर वाला जिस मन से जिस चीज का ध्यान करता है वे तीनों विद्यमान रहते हैं। परन समाधि में केवल परमेश्वर ही के आनन्दस्वरूप ज्ञान में आत्मा मग्न हो जाता है। वहां तीनों का भेदभाव नहीं रहता। जैसे मनुष्य जल में डुबकी मारके थोड़ा समय भीतर ही रुका रहता है वैसे ही जीवात्मा परमेश्वर के बीच में मग्न होके फिर बाहर आता है।


       जिस देश में धारणा की जाए उसी में ध्यान और उसी में समाधि अर्थात् ध्यान करने के योग्य परमेश्वर में मग्न हो जाने को संयम कहते हैं। जो एक ही काल में तीनों का मेल होता है अर्थात् धारणा से संयुक्त ध्यान और ध्यान से संयुक्त समाधि होती हैउनमें बहुत सूक्ष्म काल का भेद रहता है। परन्तु जब समाधि होती है तब आनन्द के बीच में तीनों का फल एक ही हो जाता है। 


       यह उपासनायोग दुष्ट मनुष्य को सिद्ध नहीं होता क्योंकि जब तक मनुष्य दुष्ट कामों से अलग होकर अपने मन को शान्त और आत्मा को पुरुषार्थी नहीं करता तथा : भीतर के व्यवहारों को शुद्ध नहीं करता तब तक कितना ही पढ़े वा सुने उसको परमेश्वर की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती।  


       महात्मा नारायण स्वामी लिखते हैं-महर्षि कपिल के अनुसार मन के खाली .' (निर्विषय) कर देने को ध्यान कहते हैं। मन को खाली करने का अभिप्राय यह है कि मन का इन्द्रियों से काम लेना-जिससे जागृत अवस्था बनती है-छूट जावे तथा मन का अपने भीतर काम करना भी-जिससे स्वप्नावस्था बनती है-बन्द हो जावेअर्थात् मनुष्य की जागृत अवस्था में ही सुषुप्ति की हालत हो जाने को मन का खाली हो जाना कहते हैं। 


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