यज्ञ―भावना
यज्ञ―भावना
जो शुभ कर्म है और जो श्रेष्ठ करने वाले व्यक्ति हैं उनकी रक्षा सदैव राजा को करनी चाहिए।यज्ञ ही राष्ट्र का आधार है।इसीलिए पवित्र वेद में कहा गया है कि―अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः अर्थात् यह यज्ञ सम्पूर्ण भुवन का केन्द्र बिन्दु नाभि स्थल है। यज्ञ सम्पूर्ण श्रेष्ठ कर्मों को कहते हैं।हवन को भी यज्ञ कहते हैं।आज विश्व का प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण के प्रदूषण को लेकर चिन्तित है।लेकिन कोई भी समाधान नहीं हो पा रहा है। यदि यज्ञ को सरकारी स्तर पर मान्यता देकर प्रत्येक कार्यालय, विद्यालय आदि स्थानों पर प्रतिदिन अनिवार्य कर दिया जाय तो इस विकट समस्या का समाधान यथा शीघ्र हो जायेगा। इसीलिए मन्त्र में परम पिता ने निर्देश दिया है कि राजा को यज्ञ और यज्ञपति की रक्षा करनी चाहिए।
व्यापक अर्थ यज्ञ के लिये जायें तो वे सारे कार्य यज्ञ में ही समाहित हो जाते हैं जो निस्वार्थ भावना से प्राणीमात्र के कल्याण को ध्यान में रखकर किये जाते हैं।राज्य में अराजकता तभी फैलती है जब यज्ञ भावना अर्थात् मिल बाँट कर खाने की भावना को कुचल कर राक्षसी प्रवृत्तियाँ फलती फूलती हैं।जब जमाखोरी की प्रवृत्ति पनपती हजारों सुखों का ग्रास छीनकर एक व्यक्ति बैठ जाता है तब अराजकता फैलती है।
इसी बात को जब भरत वन में रामचन्द्र जी से मिलने गये तब―श्रीराम ने प्रश्न पूछते हुए निर्देश दिया था―
कच्चिद् स्वादुकृतमेको नाश्नासि राघव।
भोज्यं काच्चिदाशं समानेभ्यो मित्रेभ्यः सम्प्रयच्छसि।।
अर्थात्―हे रघुनन्दन ! तुम स्वादिष्ट अन्न अकेले ही तो नहीं खा जाते ? उसकी आशा रखने वाले मित्रों को भी देते हो या नहीं।
यह थी वैदिक राजोचित मर्यादा। यह परहित साधकता श्रीराम के जीवन में भी कूट-कूटकर भरी थी यज्ञ भावना की रक्षा करना ही राम का परम ध्येय था और उन्होंने आजीवन इस भावना को मरने नहीं दिया रावण और बालि का वध करके उन्होंने उनके राज्य पर उन्हीं के भाइयों को प्रदान कर दिया। हमारा भारतीय इतिहास तो यज्ञ भावना से भरा हुआ है।
राजा भोज के विषय में कहा जाता है कि वे यज्ञीय भावना से ओत-प्रोत थे और समाज के लिए समर्पित व्यक्तियों का विशेष ध्यान रखते थे और उन्हें बहुत-बड़े पुरस्कार देते थे।महाराजा भोज के एक मन्त्री भोज की इस उदारता से परेशान थे। वे सोचते थे कि राजा यदि इस प्रकार मुक्त हस्त देता रहा तो राज्य में आर्थिक संकट खड़ा हो जायेगा। तो उन मन्त्री का साहस सीधे तो महाराज को रोकने का न हुआ उन्होंने जहाँ भोज भ्रमण करने जाते थे वहाँ एक पंक्ति लिख दी कि―
"आपदर्थे धनं रक्षेत्"
आपत्ति के लिए धन की रक्षा करें।
राजा ने इस वाक्य को देखा तो समझ गया कि हमारी दान वृत्ति से चिन्तित किसी ने सचेत करने के लिए ऐसा लिखा है। तो उन्होंने उसके नीचे लिख दिया कि―
"श्रीमतामापदः कुतः"
अर्थात् श्रीमानों पर आपत्ति कहाँ ?
अर्थात् जो व्यक्ति अपने धन को यज्ञीय भावना से व्यय करके श्री बना देता है उसको आपत्ति कभी नहीं आती है।
अगले दिन मन्त्री ने पुनः तीसरा चरण लिख दिया―
"सा चेदपगता लक्ष्मीः"
यदि लक्ष्मी चली जाय तो !
राजा ने अगले दिन पुनः तीसरे चरण को पढ़ा और हँसते हुए चौथा चरण लिक दिया कि―
"संचितार्थो विनश्यति"
अर्थात्―संचित किया हुआ धन भी नष्ट हो जाता है।
अगले दिन जब मन्त्री ने चौथा चरण पढ़ा तो राजा भोज से क्षमा याचना की और कहा कि मैं आपकी यज्ञ भावना और दृढ़ ईश्वर विश्वास के आगे नतमस्तक हूँ।
इसीलिए राजा भोज अधिक यशस्वी हुए आज भी लोग उन्हें सम्मान के साथ याद करते हैं।