गणेशशंकर विद्यार्थी

अहिंसा के समर्थक और क्रान्तिकारियों के हितैषी


गणेशशंकर विद्यार्थी


      आजादी के आन्दोलन के समय भारत के चारों ओर देशभक्ति का वातावरण बना हुआ था। जिसके हृदय में थोड़ा सा भी देशप्रेम था, वह किसी-न-किसी प्रकार देश की आजादी में अपना योगदान करना चाहता था। कोई असहयोग आन्दोलन के रूप में तो कोई क्रान्तिकारी के रूप में, कोई अंग्रेजों के विरुद्ध नारे लगाकर, कोई पर्चे बांटकर, कोई तिरंगा फहराकर अपने देशप्रेम को प्रकट कर रहा था। लेखक और पत्रकार लेखनी के द्वारा अपना योगदान कर रहे थे। उन्हीं में से एक सुप्रसिद्ध पत्रकार थे -गणेशशंकर विद्यार्थी, जिनके द्वारा कानपुर में प्रकाशित-सम्पादित 'प्रताप' नामक समाचार पत्र उस समय हिन्दी क्षेत्र में आजादी का प्रतीक बन गया था। 'प्रताप' के माध्यम से श्री विद्यार्थी जहां आजादी के लिए जागृति का वातावरण बना रहे थे वहीं क्रान्तिकारियों, स्वतंत्रतासेनानियों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध खुलकर आवाज उठाते थे। इस कारण अंग्रेज सरकार को गणेशशंकर विद्यार्थी खटकने लगे थे। सरकार की यह कोशिश रहती कि किसी भी तरह यह समाचार पत्र बंद हो जाये। उत्तर प्रदेश के अंग्रेज प्रशासन ने आपको खूब तंग किया, खूब सताया, बात-बात पर जेलों में डाला और वहां यन्त्रणाएं दी गयी। गणेशशंकर एक आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। जब भी जेल में डाले जाते तो छूटने के समय तक अस्थिपंजर होकर निकलते। किन्तु आपने सारी यातनाएं सहन करने के बावजूद देशसेवा का कार्य नहीं छोड़ा और अंग्रेज सरकार ने आपको जेल में डालने का कोई मौका नहीं छोड़ा। छोटी-छोटी कारावास की सजाओं के अतिरिक्त आपको १९२० में दो वर्ष का और छूटते ही फिर १९२५ तक कारावास भोगना पड़ा। यद्यपि आप अहिंसक आन्दोलन के समर्थक थे किन्तु क्रान्तिकारियों की हर संभव सहायता करते थे। आपने स्वतंत्रता सम्बन्धी प्रत्येक घटना को महत्वपूर्ण और प्रेरक ढंग से प्रस्तुत किया। क्रान्तिकारियों के साथ जेलों में होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार और अत्याचारों को उजागर कर न्याय का ढोंग रचने वाली गोरी सरकार का पर्दाफाश किया। आप द्वारा सम्पादित प्रताप के पाठकों का क्षेत्र बहुत व्यापक था। लगभग पन्द्रह करोड़ लोगों तक आपकी आवाज पहुंचती थीहर विरोध के बाद अंग्रेज सरकार तिलमिलाकर रह जाती।


      एक दिन पत्र के कार्यालय में जाने के बाद देर रात तक जब आप नहीं लौटे तो आपकी खोज हुई। पता चला कि किसी ने आपकी हत्या कर दी है। आपकी हत्या का समाचार सुनकर भारत का बहुत बड़ा क्षेत्र दु:ख के सागर में डूब गया। आपकी हत्या के षड्यन्त्र में अंग्रेज सरकार के हाथ से इन्कार नहीं किया जा सकता |


      एक क्रान्तिकारी लेखक के साथ आप श्रेष्ठ साहित्यकार, हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक और गरीबों के हितैषी थे। सामाजिक सौहार्द बनाये रखने में आप सदा यत्नशील रहते थे। २५ मार्च १९३१ को कानपुर में साम्प्रदायिक दंगा भड़क उठा। दोनों पक्षों के अनेक लोग मारे गये। आपने घर-घर जाकर दोनों पक्षों के लोगों को समझाया। उसका शुभ परिणाम यह निकला कि कानपुर में शीघ्र ही शान्ति स्थापित हो गयी। आपकी हत्या के साथ एक देशप्रेमी सौम्य व्यक्तित्व सदा के लिए शान्त हो गया और एक प्रखर लेखनी सदा के लिए अवरुद्ध हो गयी |


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