परम पुरुष का सन्दर्शन


परम पुरुष का सन्दर्शन 


स नो बन्धुर्जनिता, स विधाता, धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।


यत्र देवा अमृतमानशानास, तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ।


         १) परम पुरुष निर्गुण, निराकार है; पर साधक योगी उसे अनन्त गुणों की खान समझकर उसकी गुण-गरिमा से निरन्तर प्रेरणा लेना चाहते हैं। मनुष्य और मनुष्य में जितने सम्बन्ध हो सकते हैं उनकी इति भी परम पुरुष में होती है। श्रद्धा और आदर से परम पुरुष के साथ अनेक प्रिय और आत्मीय सम्बन्धों की कल्पना करता हुआ साधक सोचता रहता है कि वह परमेश्वर हमारा बन्धु है हमको प्रात्मीयता के सूत्र में बांधने वाला हैहमारा जनक भी वही है उसी की प्रेरणा से यह सृष्टि गई है। वह इसको जन्म देकर इसका पोषण भी करता है । सृष्टि का धारक होने के कारण ही उसे विधाता कहा जाता है । वह. सृष्टि का नियामक है। वह सर्वज्ञ भी है । वह सब तेजोमय लोकों का जानकार है। सब भुवनों-तीन भुवनों का ज्ञान उसे होता है। उससे कुछ भी छिपा हुआ नहीं है।


        २) पिण्ड और ब्रह्माण्ड में हमारे पूर्वजों ने तीन, पांच या सात दिव्य लोकों की कल्पना की है पिण्ड में स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की स्थिति वैसी ही है जैसे ब्रह्माण्ड में पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्य लोक की स्थिति है। इनसे ऊपर तुरीय स्थान प्रात्मा का है। ब्रह्माण्ड में धु लोक में स्थित सूर्य से ऊपर परम पद की कल्पना की जाती है । तुरीय लोक की सत्ता का आभास तृतीय धाम में ही हो सकता है इसलिए यहाँ परम बन्धु और जनक परमात्मा से उस तृतीय धाम की अोर प्रेरणा देने के लिए प्रार्थना की गई है ।


         ३) परमधाम की एक विशेषता का यहां उल्लेख किया गया है। वह यह कि उसमें देवगण अमृत का सेवन किया करते हैं। हमारा शरीर दिव्य और अदिव्य तत्त्वों के सम्मिलित सहयोग से चल रहा है। जब हम स्थूल शरीर से सम्बद्ध अदिव्य अर्थात् भौतिक पदार्थों से जुड़े रहते हैं तब हम मरणधर्मा होते हैं; किन्तु जब हम इस शरीर में व्याप्त दिव्य तत्त्वों से सम्बन्ध जोड़ लेते हैं तो हमारा जीवन भी जन्म-मरण के चक्कर से ऊपर उठ जाता है । अमर जीवन की खोज का यही मार्ग है। इस दिशा में बढ़ने के लिए साधना करनेवाले योगी देवताओं की तरह अमृत का सेवन करके अमर हो जाते है। इसके लिए प्रेरणा अपनी दिव्य शक्तियों के माध्यम से वही परम पुरुष देता हैं।


बन्धु, जनक वह और विधाता


 सब भुवनों का रखता ज्ञान ।


उसी लोक को ओर प्रेरते


(जहाँ) करते देव अमृत का पान ।


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