विविध संस्कार


विविध संस्कार


 


      लह  भी एक योजना  आगे चल कर इस में कई रुप दिया गया। हमारे    एक योज थी। इस योजना को इतना सराहा गया कि आगे चल का अन्य छोटे संस्कार भी जोड कर इसे विशाल रूप दिया : महापुरुषों की सदा ही इच्छा रही है कि इस धरती पर मान सुखी रहे। इसी हेतु काल क्रम में सोलह संस्कारों के साथ लघु संस्कार भी जुडते चले गए, ताकि इनकी प्रेरणा के स्रोत व मा दर्शन के क्रम में और भी वृद्धि हो सके। ऐसे लघु संस्कारों में हम सह प्रथम शाला कर्म को लेते हैं। 


      हमारे ऋषियों ने मानव जीवन के सोलह संस्कारों की पद्धति संस्कार आरम्भ कर वास्तव में मानव के नव निर्माण की योजना तैयार की थी | इस योजना को इतना सराहा गया कि आगे चल कर इस में कई अन्य छोटे संस्कार भी जोड कर इसे विशाल रूप दिया गया । हमारे महापुरुषों की सदा ही इच्छा रही है कि इस धरती पर मानव सदा सुंखी रहे |  इसी हेतु काल क्रम में सोलह संस्कारो के साथ जो अनेक लघु संस्कार भी जुड़ते चले गए , ताकि इनकी प्रेरणा से स्रोत व मार्ग दरसन के क्रम में और भी वृद्धि हो सके | ऐसे लघु संस्कारो में हम सर्व प्रथम शाला कर्म को लेते है | 


  शाला शिलान्यास एवं गृह प्रवेश संस्कार


       इस कर्म के तीन भाग होते हैं : (१) शाला का शिलान्यास, (२) शाला प्रवेश तथा (३) वाणिज्य विधि | 


      यह कर्म किसी आवासीय भवन, विद्यालय, दुकान, पुस्तकालय, भोजनालय, होटल, कार्यालय अथावा कारखानों आदि औद्योगिक कन्छ को आरम्भ करने के उद्देश्य से उनके शिलान्यास के लिए किये जात. शिलान्यास के पश्चात् जब भवन बन कर तैयार हो जाता हैअच्छी प्रकार से साफ करके भवन के अन्दर प्रत्येक दिशा में यज्ञ पात्र रख कर यज्ञ करके सुखी भवि प्य की प्रार्थना की जाती है। यदि व्यापार आरम्भ करने के लिए भवन बनाया गया है तो इस अवसर पर इसी प्रकार का यज्ञ करके उत्तम लाभ प्राप्त करने की प्रार्थना की जाती है। इस निमित्त कोई नई विधि तो स्थापित नहीं की गई। हां ! कहतेत मन्त्रों की विशेष आहुतियां डालने की परम्परा विकसित हुई है, जिन मन्त्रों का सम्वन्ध इस सरकार से होता है।



  • न्म दिन संस्कार


        हमारी वैदिक पद्धति में प्राचीन ऋषियों ने जन्म के समय केवल जातकर्म संस्कार की पद्धति आरम्भ की थी। आज जन्म दिन मनाने की परम्परा का भी बड़ी तेजी से विकास हुआ है । ऋषियों ने जीवन में सोलह संस्कारों के माध्यम से सोलह बार मानव को उसके कर्तव्यों का बोध कराने की आवश्यकता अनुभव की थी , किन्तु आज का मानव ऐसा लगता है कि जीवन में मात्र सोलह बार सोलह संस्कारों के द्वारा कर्तव्य बोध को बहुत कम मानता है। इस कारण उसने अपने जीवन में सोलह से भी कहीं अधिकबर कर्तव्य बोध के लिए, बार बार बडों का आशीर्वाद पाने के लिए तथा बार बार उत्तम प्रतिज्ञाओं में बंधने के लिए अनेक छोटे संस्कार आरम्भ किये हैं। इन छोटे संस्कारों में जन्म दिन संस्कार का विशेष महत्व सामने आने लगा है।


      आज प्रत्येक बालक ही नहीं बडा व्यक्ति भी अपना जन्म दिन प्रति वर्ष किसी न किसी रूप में तथा किसी न किसी प्रकार बडी धूमधाम से मनाने का अभिलाषी है । वह मानता है कि ऋषियों ने सका आयु शत वर्षीय स्वीकार की है। अतः वह अपने जीवन में अन्य संस्कारों के अतिरिक्त कम से कम एक सौ बार तो जन्म दिन मनाने का अभिला बी हो ही गया हैवह कर्तव्य बोध की भावना रखे रखे किन्तु जन्म दिन मनाने का अवश्य ही अभिला बी है। ज इसे मनाता है तो कुछ कर्तव्यों का निर्वहन स्वयमेव ही करता है। मित्रों का सत्कार, बडों से आशीर्वाद पाना तथा कुछ दान पुण्य का अतःप्रतिवर्ष जन्म के दिन यज्ञ करने के पश्चात् बालक को न आशीर्वाद दिया जाता है अपितु उसे कुछ शुभ संकल्प भी करवाना हैं ताकि वह संस्कार स्वरूप यहां से भी कुछ शिक्षाएं प्राप्त कर सके इस अवसर पर उपहार देकर उसे न केवल सम्मानित किया जाता है अपित इन उपहारों के माध्यम से उसे अपने सरीखा सम्पन्न बनाने का प्रयास भी किया जाता है। 


  वैवाहिक वर्षगांठ संस्कार 


         नवोदित लघु संस्कारों में वैवाहिक वर्षगांठ भी आज एक संस्कार बन गया है। अपने विवाह की तिथि को प्रतिवर्ष धूमधाम से मनाने की परम्परा का भी तेजी से विकास हुआ है। इस दिन भी यज्ञ के साथ जहां अपनी की हुई प्रतिज्ञाओं को स्मरण किया जाता है, वहां आशीर्वाद व उपदेश से दम्पति को अपने कर्तव्यों की भी फिर से स्मृति दिलाई जाती हैइस संस्कार के लिए महर्षि द्वारा पद्धति निर्धारित न होने पर भी हमारे विद्वानों ने कुछ वेद मन्त्र निश्चित कर दिये हैं। इन मन्त्रों में गृहस्थ को कुछ उपदेश दिये गए हैं। इन्हीं मन्त्रों से आहुतियां दी जाती हैं | 


  पुण्य तिथि संस्कार         प्राचीन काल में हमारे पूर्वज एक निश्चित आयु को गृह त्याग करवानप्रस्थाश्रम में दीक्षित होकर सामाजिक सर्वहितकारी कार्यों में लग जाते थे। यह आयु पचास वर्ष की होती थी। इस समय वह गृहस्थ में आई शिथिलता को दरका मान शिलता को दूर करने के लिए फिर से ब्रह्मचारी का सा जीवन करते हुए शरीर को खूब कठोर बना लेते थे। इसके पश्चात इतर वर्षिय आयु में संन्यास लेकर सर्व संसार को अपना परिवार कर सर्वत्र विचरण करते हुए सभी को सन्मार्ग पर चलने का देते थे। इस प्रकार विश्व कल्याण करते हुए कहां उसकी जीवन औला समाप्त हो गई, उसके परिजनों को पता ही नहीं चलता था। जहां देहान्त हुआ , वहीं जो भी उपस्थित होता, वही उसका अन्तिम संस्कार कर देता इस प्रकार पुण्य तिथि की परम्परा स्थापित नहीं हो सकीहां ! कुछ सुप्रसिद्ध महापुरुषों की पुण्य तिथि , उनके जीवन से प्रेरणा प्राप्त करने के लिए अवश्य मनाई जाती थी यही ही कारण है कि हमारी संस्कृति में जीवन के सौ बसन्त देख चुके 


           किसी भी व्यक्ति, चाहे वह राजा हो या रंक, की मृत्यु की महापुरुषों की पुण्य तिथि , उनके जीवन से प्रेरणा प्राप्त करने के लिए अवश्य मनाई जाती थी | 


          अतः हमारी संस्कृति में जीवन केसौ बसन्त देख चुके किसी भी व्यक्ति चाहे वह राज हो या रंक , की मृत्यु की तिथि का बहुत कम वर्णन मिलता है। आज परम्पराएं बदल गई हैं। आश्रम व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गई है। आश्रम तो क्या किसी का परिवार से दूर जाने का साहस ही नहीं होता । सभी यह प्रश्न करते हैं कि आज कोई अच्छा साधु नहीं मिलता ? मिले तो कैसे मिले ? जब आप स्वयं ही अपना आश्रम बदलने को तैयार नहीं तो साधु आगे कहां से ? हां ! आज इसी कारण ही बडे पुरुषों का देहान्त उनके अपने ही परिवार में हो जाता हैतभी तो हमें अपने परिजनों की पुण्य तिथि का ज्ञान रहता है हम प्रति वर्ष पुण्य तिथि को भी एक संस्कार स्वरूप मनाते हुए .. गुणों को स्मरण भी करते हैं तथा उन्हें अपने जीवन में धारण का संकल्प भी दोहराये हैं। इसे की विधि वरूना भी कुछ निर्धारित मन्त्रों की आहुतियां दी जाने लगी हैं | 


        इसी प्रकार किसी शुभ कार्य के करने या विशेष यात्र परमार केल्गि भी शनेकलोग लघु संस्कार स्वरूप यज्ञ करने लगे हैं। इन भी अनेक बहाने ढूंढने का प्रयास किया जाता है जीवन में किसी न किसी प्रकार प्रेरणा पाने का, संकल्प लेने का तथा आशीर्वाद पाने का ।अत. हमारे संस्कारों में महर्षि द्वारा निर्धारित संस्कारों के अतिरिक्त आज अन्य अनेक लघु संस्कार करने की होड सी ही आरम्भ हो गई है। अनेक नए संस्कार और जुड गए हैं | 


        इस प्रकार हमारे ऋषियों ने जो सोलह संस्कारों की परिपादी आरम्भ की थी, वह पूर्णतया वैज्ञानिक तथा अर्थपूर्ण थी । यह संस्कार मानव के नव निर्माण की सीढी थे, उसके जीवन को एक निश्चित दिशा देने वाले थे. मार्ग दर्शक थे तथा जीवन के उज्ज्वल लक्ष्यों की प्राप्ति का साधन थे । आज संस्कारों की परम्पराएं प्रायः समाप्त हो रही हैं। जातकर्म सस्कार तो विश्व के प्रत्येक समुदाय के लोगों को करना ही पडता है। यह सब की मजबूरी है। विवाह संस्कार भी सब की एक बाध्यता ही है। चाहे इसे भी अनावश्यक समझते हुए लोग कहते हैं कि पण्डित जी बस दो मिन्ट में इसे कर दीजिए। वह नहीं जानते कि जिस संस्कार पर सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है, जिस गृहस्थ पर सभी आश्रम टिके हैं, उसे दो मिन्ट में निपटाएंगे तो यह टूटेगा भी दो ही मिन्ट मेंयह जन्म जन्मान्तरों का बन्धन कैसे बन सकेगा। इसी का ही परिणाम पालक्षित हो रहेतलाकों के साको के रूप में हम देख भी रहे हैं। मानव जीवन सस्कार आज मृतक सस्कार रह गया है, जो कि विश्व के जो भी टालने का प्रयास करने पर भी टल नहीं सकता की मत्य अनिवाये है तो उस की अन्त्येष्टी भी अनिवार्य है। इन तीन कारों के अतिरिक्त शेष तेरह संस्कार लुप्त ही हो गए हैं। किन्तु जितने अच्छा बनेकी अभिला षा नहीं छोडी। इस कारण इन लुप्त होते जा रहे संस्कारों का स्थानापन्न लघु संस्कारों केरूप में हो रहा है। जासंस्कार भी किये जावें, यह भी उत्तम हैहम इन का विरोध नहीं करते किन्तु मानव के नव निर्माण की योजना को भुला देना भी तो हमारे नाश का कारण बन रहा है। इसे भुलाने से ही आज सर्वत्र कलह का वातावरण बन रहा है। इस काल में भौतिक चकाचौंध बढ रही है। भाई-भाई की जान का शत्रु बन रहा है। यदि हमारा जीवन सोलह संस्कारों से पूर्णतया संस्कारित होता तो यह अवस्था कभी आ ही न पाती | 


        हमारे महापुरुषों ने इन संस्कारों के माध्यम से मानव जीवन को वैज्ञनिक आधार दिया है। जहां वैज्ञानिकता है, वहां किसी भी बात की कमी नहीं आती । संस्कार के नाम से हम जो यज्ञ करते हैं, उससे हमारे आसपास का वायु मण्डल शुद्ध होता है। रोगाणुओं का नाश होता है। जीवन में शुचिता आती है। अपने बडे लोगों से हम आशीर्वाद लेते हैं। मन्त्रोच्चारण से मानसिक सन्तुलन ठीक बनता है। पास पडोस के लोगों से मेल जोल बढता है। दूर के सम्बधियों के आने से, उनसे भी मेल जोल बना रहता है। परिवार में धन धान्य व स्मृद्धि बढती है। क्षेत्र भर में इस की चचो होती है कि अमुक परिवार मे सोलह संस्कार होते हैं. इससे परिवार की ख्याति में वृद्धि होती है।मानव जीवन का उद्देश्य प्राप्ति का समुचित साधन संस्कारों से प्राप्त होता है। प्रेम प्यार व भाईचारे में वृद्धि होती है। सरंस्कारित व्यक्ति सदा सभी के भले की ही कामना करेगा। कभी दुरित को पास नहीं आने देगा। झूठ, चोरी, ठगी व अनाचार को उखाड फैंकेगा | 


      ___ जिन सोलह संस्कारों को अपनाने से सब ओर सुख व स्मलित का साम्राज्य होगा। परिवार की ख्याति में वृद्धि होगी। सभी तरफ शान्ति ही शान्ति होगी। ऐसे संस्कारों को भुलाने का अभिप्राय है अपना, अपने परिवार का, जाति का व देश का सर्वनाश करना। ऐसे सर्वनाश को कौन है जो प्राप्त करने की अभिला षा करेगा । अतः आज हमें प्रतिज्ञा करनी होगी कि हम चाहे कितने ही लघु संस्कारों का आवि ष्कारकर उन्हें अपनावे किन्तु महर्षि के बताए सौलह संस्कारों को अपने जीवन कि क्रियाओं का अभिन्न अंग बनाएंगे। इन अवसरों पर सुयोग्य पुरोहित से यज्ञ करवा कर महर्षि दयानन्द सरस्वती की निश्चित की हुई संस्कार विधि के मन्त्रों व विधि से सभी संस्कार कर अपने परिवार में तो स्वर्गिक वातावरण स्थापित करेंगे ही, इसके साथ ही साथ मानव के नव निर्माण का मार्ग भी प्रशस्त करेंगे। यही श्रेय का मार्ग है। यही सुख का सा!धन है। यही कल्याण का मार्ग है। यही ऋषियों की दी हुई दिशा है। इसी का ही अनुसरण , इसी क अनुकरण हमारे जीवन का प्रथम व अन्तिम लक्ष्य है। आज हमें संकल्प लेना है कि हम अपने जीवन को संस्कारित करने के लिए सोलह सरंकारों को बडी धमधाम से करेंगे।


 


 


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