विपिनचन्द्र पाल

विपिनचन्द्र पाल


      लाल, बाल, पाल की गरमदल की जोड़ी में बंगाल के जाने-माने नेता विपिनचन्द्र पाल को 'पाल' नाम से पुकारा जाता था। ये उत्कृष्ट वक्ता सुप्रतिष्ठित नेता, परम सत्यवादी और क्रान्तिकारी विचारों के समर्थक थे|


      अरविन्द घोष 'वन्देमातरम्' पत्र निकालते थे किन्तु गुप्त रूप सेइस पत्र में बहुत ही जोशीले लेख छपते थे। उन लेखों ने बंगाल में तूफान खड़ा कर दिया। अंग्रेजी सरकार इस पत्र से बहुत परेशान थी किन्तु बहत कोशिश करने पर भी वह सम्पादक का पता नहीं लगा पायी। आखिर अनुमान के आधार पर अरविन्द घोष को गिरफ्तार कर लिया। मुकद्दमा चलाने के लिए सरकार को कोई प्रमाण नहीं मिला। गोरी सरकार ने तब एक घृणित चाल चली। उसने विपिनचन्द्र पाल की सत्यवादिता का अनुचित लाभ उठाना चाहा। यह सोचकर कि बड़े क्रान्तिकारी नेता पाल को 'वन्दे मातरम्' के सम्पादक का अवश्य पता होगा, और यदि उन्हें अदालत में गवाह के रूप में बुला लिया जाये तो वे झूठ नहीं बोलेंगे, इस प्रकार सच सामने आ जायेगा; सरकार ने उनको गवाह के रूप में बुला लिया |


      श्री पाल अंग्रजों की इस कूटनीति को समझते थे। जब उन्हें गवाही के लिए खड़ा किया गया तो उन्होंने कहा -


    "मैं इस विदेशी सरकार के सामने गवाही देना नहीं चाहता। मेरा विवेक इस बात की अनुमति नहीं देता।"


      सरकार की चाल धरी रह गयी। अपमान से बचने के लिए अदालत ने गवाही न देने को अदालत की मानहानि' घोषित किया और विपिनचन्द्र पाल को जेल की सजा सुना दी ! कथित अभियुक्त तो छूट गया किन्तु गवाह को सजा हो गयी!!ऐसा विचित्र था अंग्रेजों का न्याय! (सम्पादक)


(आत्मकथा)


      "जो वर्ताव मेरे साथ प्रेसीडेन्सी और बक्सर जेल में हुआ, मैं उसकी निन्दा नहीं करूंगा। मेरे साथ कृपापूर्ण व्यवहार किया गया। जो दो एक कष्ट हुए भी थे, शिकायत करने पर रफा हो गये। मुझे लिखने-पढ़ने की सविधा थीअधिकतर मैं लिखने-पढ़ने में ही लगा रहता था। मेरे पत्र मझे दिये जाते थे और मैं सहर्ष पत्र लिख सकता था; किन्तु मास भर में एक बार! मुझे काम करने का अपनी ही अनुमति के अनुसार पूर्ण अधिकार था। जब प्रात:काल मेरी इच्छा होती, उठ जाता और शाम को नींद आती सो जाता था। जेल के कम्पाउण्ड में मैं सैर भी करता था, सुबह पीने को चाय मिलती थी, परन्तु रात को कैद कोठड़ी में बन्द होना अनिवार्य था।


      मैं प्रथम श्रेणी का कैदी था, परन्तु मुझे उसकी खुराक नहीं मिलीमुझे बीमारों का पथ्य खाने को मिलता था। बक्सर जेल में नये सुपरिण्टेण्डेण्ट के आने पर मुझे साधारण कैदियों का भोजन मिला। उससे मेरी तबियत खराब होने लगी, तब मैंने शिकायत की, इस पर फिर मुझे बीमारों का भोजन मिलने लगा |


      शायद यह राजद्रोह न होगा-यदि मैं कहूं कि जेल के डाक्टर को ही जेल का सुपरिण्टेण्डेण्ट बनाने की प्रणाली ठीक नहीं है। इससे कैदियों पर बडा अत्याचार होता हैबदमाश कैदी यहां आकर और बदमाश हो जाते हैं। कैदियों का यहां पर कोई किसी तरह का सुधार नहीं होता।


      मेरे छुटकारे की तारीख को जेल के कानून के अनुसार-ऑफिस में आते ही-सुपरिण्टेण्डेण्ट को मुझे रिहा कर देना चाहिए था, पर वह बेपरवाही के साथ दो घण्टे तक कैदियों की परेड देखता रहा और मनोरंजन करने के बाद मेरे रिहा करने के कागजों पर हस्ताक्षर किये। इसके बाद मुझ से पछा गया कि तुम्हारे कितने रुपये हैं। यह सरासर मर्खता थी। क्योंकि छ: मास पहले का हिसाब मुझे क्या याद रह सकता था। उसने मेरी उस रकम में से मनमाने तौर पर खर्च काटकर बाकी रुपया मझे दे दिया। इस खर्च में मेरा और मेरे साथी दो पुलिसमैनों का किराया भी शामिल था। मैंने कोई आपत्ति नहीं की-और मैं रिहा होकर घर चला आया।" ('स्टेट्समेन' से)


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