विद्यार्थी का शिष्यरूप


विद्यार्थी का शिष्यरूप


       शिष्य संज्ञा की सार्थकता इस अनुशासन में निहित है। कुमार ब्रह्मचारी क्रमशः अन्तेवासी से छात्र और छात्र से शिष्यभाव को प्राप्त होता है।


        शिष्य शब्द शासु इच्छायाम् तथा शासु अनुशिष्टौ इन दो धातुओं से निष्पन्न होता है। विद्यार्थी में इच्छाशक्ति होनी चाहिए, परन्तु वह इच्छा अनुशासित हो, अर्थात् अनुशासित इच्छाशक्तिवाला व्यक्ति ही शिष्य कहलाने का पात्र है। इच्छाहीन और अनुशासनहीन व्यक्ति शिष्य नाम पर कलङ्क है। विद्यार्थी शब्द में पढ़ा हुआ अर्थी पद भी इसी इच्छाशक्ति की ओर निर्देश कर रहा है-जिसे विद्या की इच्छा है, चाहना है, वही ब्रह्मचारी है। यह इच्छा छात्र की विद्या के लिए अथवा ब्रह्म के लिए होनी चाहिए। इसी बात को अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में इस प्रकार कहा गया है-'ब्रह्मचारीष्णश्चरति १ ब्रह्म की चाहना में जो निरन्तर गतिशील रहता है, वह ब्रह्मचारी है। इसमें आया हुआ इष्णन् शब्द भी इषु इच्छायाम् की ओर इङ्गित करता है।


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।