वेद-रहस्य

वेद-रहस्य
पहला अध्याय
सृष्टि का प्रारम्भ


 


          मनुष्य का स्वाभाविक ज्ञान पशुओं से कम है। गाय, बैल आदि पशुओं के बच्चे स्वभावत: तैरना जानते हैं, परन्तु मनुष्य सीखे बिना नहीं तैर सकता। मनुष्यों को पशुओं से जो विशेषता प्राप्त है, उसका कारण यह है कि नैमित्तिक ज्ञान प्राप्त करने और प्राप्त करके उसकी वृद्धि करने की योग्यता रखता है। यही नैमित्तिक ज्ञान, मनुष्यत्व की भित्ति ऊँची किया करता है। इसी योग्यता का लगभग अभाव, पशुओं को ऊँचा होने से रोक दिया करता है। स्वाभाविक ज्ञान जन्म-सिद्ध होता है, परन्तु नैमित्तिक ज्ञान अन्यों से प्राप्त किया जाता है। इस समय वह माता, पिता और अध्यापकं वर्ग से प्राप्त किया जाता है।


            परन्तु जगत् के प्रारम्भ में, जिसे दुनिया की पहली नस्ल कहा जाता है, अमैथुनी सृष्टि होने के कारण, उसे कोई शिक्षा देकर नैमित्तिक ज्ञान प्राप्त कराने वाला नहीं होता। इस सम्बन्ध में अमैथुनी सृष्टि का समझ लेना कदाचित् उपयोगी होगा।


अमैथुनी सृष्टि


            महाप्रलय में जगत् का अत्यन्ताभाव हो जाता है। कार्यरूप में परिणत प्रकृति का चिह्न बाकी नहीं रहता, न कोई लोक बाकी रहता है। सूर्य, चन्द्र आदि सभी लोक-लोकान्तर कारण रूपी प्रकृति की गोद में शयन करने लगते हैं। ऋग्वेद में इसी सत्, रजस् और तमस् की साम्यावस्था अथवा जगत् के कारण रूप प्रकृति में लीन हो जाने के लिए 'तम आसीत्तमसा गूढमग्रे' (ऋग्वेद १० । १२९ । ३) कहा गया है। विज्ञान ने भी इस महाप्रलयवाद का समर्थन किया है। क्लाशियस (The founder of the mechanical theory of heat) ने ताप को दो भागों में विभक्त किया है(१) ब्रह्माण्ड में उपस्थित ताप स्थिरता के साथ काम में आता रहता है। (२) दूसरा काम में न आनेवाला ताप, अधिक से अधिक हो जाने की ओर प्रवत्त रहता है। इसकी प्रवृत्ति भीतर की ओर होने की होती है। यह दूसरी शक्ति ताप रूप में होकर शीतलता प्राप्त वस्तुओं में बंट कर आगे ताप रूप में काम में आने के अयोग्य हो जाती है। पहले प्रकार का ताप काम में आ-आकर कम होता रहता है और दूसरा काम में न आने वाला ताप, पहले ताप के व्यय से, बढ़ता रहता है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड की कर्तृत्व शक्ति दूसरे प्रकार के ताप रूप में परिवर्तित होती रहती है और काम में नहीं आया करती। यह कम होते-होते जगत् से शीतोष्ण के अन्तरों को दूर कर देती है और पूर्णरूप से उन वस्तुओं में समाविष्ट हो जाती है जिन्हें गति-शून्य और काम के अयोग्य द्रव्य कहते हैं। ऐसा हो जाने पर प्राणियों का जीवन और गति समाप्त हो जाती है। जब यह दूसरा ताप पहले को समाप्त करके पूर्णता प्राप्त कर लेता है तभी महाप्रलय हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त हो जाने और नियत अवधि तक कायम रहने के बाद जब जगत् उत्पन्न होता है, तब प्रत्येक लोक क्या और प्रत्येक योनि क्या, नये सिरे से ही बनती है। यहाँ लोक नहीं किन्तु योनि के उत्पन्न होने के सम्बन्ध में विचार करना है-भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीर जैसा वैशेषिक दर्शन में लिखा है। दो प्रकार के होते हैं-


(१) 'योनिज'- जो माता-पिता के संग से उत्पन्न होते हैं, जिसे मैथुनी सृष्टि कहते हैं।


(२) 'अयोनिज'- जो बिना माता-पिता के संयोग के उत्पन्न होते हैं और जिसे अमैथुनी सृष्टि कहते हैं। समस्त प्राणी जो जगत् में उत्पन्न होते हैं, उनकी उत्पत्ति चार प्रकार से होती है-


(क) जरायुज- जिनके शरीर जरायु (झिल्ली) से लिपटे रहते हैं और इस जरायु को फाड़कर उत्पन्न हुआ करते हैं, जैसे मनुष्य, पशु आदि।


(ख) अण्डज- जो अण्डों से उत्पन्न होते हैं, जैसे पक्षी, सांप, मछली आदि।


(ग) स्वेदज- जो पसीने और सील आदि से उत्पन्न होते हैं।


(घ) उद्भिज्ज- जो पृथिवी फाड़कर उत्पन्न होते हैं। जैसे वृक्ष आदि। इनमें से अन्तिम दो की तो सदैव अमैथुनी सृष्टि हुआ करती है और प्रथम दो की मैथुनी और अमैथुनी दोनों प्रकार की सृष्टि हुआ करती है।


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