वैदिक धर्म के प्राण


सत्य + न्याय + दया + अहिंसा + ईश्वरभक्ति
(अन्य मतों से तुलनात्मक सत्य) लिए ईश्वर द्वारा


          (अन्य मतों से तुलनात्मक सत्य) धर्मो का आदि स्रोत वेद है, वेदों की शिक्षा मानव मात्र के लिए ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं । ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया और उसके उपभोग के लिए वेदों का संविधान भी दिया है जो प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है । और प्राणियों के कल्याण के लिए भिन्न-भिन्न पदार्थ को बनाया है, और उन पदार्थ के गुण, कर्म, स्वभाव आदि में अनन्त काल तक अर्थात सर्वकाल में एक समान रहते हैं । उन पदार्थो को हम सृष्टि कर्म विज्ञान कहते है । जैसे सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, जल, वनस्पति, भूगोल, आदि तथा प्राणियों में भिन्न-भिन्न शरीर और उनकी इन्द्रियां जो जन्म जन्मान्तरों तक एक समान रहती हैं। इस नित्य कर्म विज्ञान को हम सृष्टि क्रम, धर्म कहते हैं, और वहीं वास्तविक धर्म है । इसीलिए मनुष्य मात्र का वैदिक धर्म है। 


धर्मो एवों हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः


          अथार्त- जो मनुष्य ईश्वरीय धर्म की उपेक्षा करता है, धर्म उसका ही नाश कर देता है, जो ईश्वरीय धर्म का पालन करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है । मानवीय जगत में प्रत्येक पदार्थे को उसके गुण क्रमनानुसार मानना, और सम्पूर्ण प्राणियों के साथ उसी के अनुकूल व्यवहार करना, अपने जीवन में, सत्य व्यवहार, और सृष्टि क्रमनानुसार प्रत्येक कृत्य मानना व करना, तथा जैसे ईश्वर प्राणी मात्र के लिये उपकार करता है वैसे ही अपने आप भी करना, वास्तविक धर्म कहाता है।


         मानव समाज ने अपने स्वार्थ के लिये सम्प्रदायों मतों का निर्माण करके उस मत को धर्म का नाम देकर मनुष्य मात्र को स्वार्थी व सृष्टि क्रम विरुद्ध धर्मो में उल्झा दिया है । आज मानव जगत विज्ञान में सर्वाधिक उन्नति कर रहा है । किन्तु मानवीय धार्मिक व्यवहारों के पालन में दिनों-दिन पतन होता जा रहा है। बिना ईश्वरीय धर्म के केवल विज्ञान की उन्नति विनाश का कारण बनता है ।


         यदि संसार के सारे मत मतान्तर ईश्वरीय धर्म सृष्टि क्रम धर्म को मुक्त कंठ से स्वीकार कर लेंवे तो सम्पूर्ण विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है । उपयुक्त धर्म प्राण जो व्यक्त किये है यदि उसमें सिद्धान्त भी निकाल दिया जाए तो वह धर्म नहीं रहता है । उक्त सिद्धान्त ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है । आइए इन सिद्धान्तों गुणों पर विचार करते हैं ।


धर्म का प्रथम सिद्धान्त-सत्य


           सत्य के अनेक भेद है । परन्तु जो पदार्थ जैसा दिखता है उसको वैसा ही मानना, जानना, कहना, सत्य की सामान्य परिभाषा है। क्योंकि भाव का कभी अभाव और अभाव का कभी भाव होता ही नहीं है । त्रिकालातीत को सत्य कहते हैं अर्थात् जो त्रिकाल की चपेट में न आये उसे सत्य कहते हैं । असत्य से सत्य और सत्य से ऋत सत्य महान है, जिसके बल पर सब कुछ टिका है । ऋत सत्य को समझना अनिर्वाय है क्योंकि असत्य कल्पित, सत्य संकलपित और ऋत सत्य स्वाभाविक है । असत्य के असुर, सत्य के आश्रित मनुष्य और ऋत सत्य के आश्रित देवता रहते हैं । स्वाभाविक सत्य सदैव सत्य ही रहता है । सत्य को कभी दबाया नही जा सकता है सत्य से सुगम कोई मार्ग नही है। वह वेद का उपदेश है


             इसलिए वैदिक धर्म ईश्वर को निराकार मानता है, मूर्ति पूजा का निषेध व काल्पनिक देवी देवताओं की पूजा, भूतप्रेत, जादू टोना, फलित ज्योतिष, पशुबलि, मृतक का श्राद्ध, जाति पाति, छुआछूत को नही मानता इनका वेदों में और ईश्वरीय सृष्टिक्रम में कोई संकेत नहीं है ।


           मत मतान्तर- अवतारवाद, मूर्तिपूजा, देवी दवताओं की पूजा, फलित ज्योतिष, जाति पांति, ग्रहों का लगना, अनेक काल्पिनिक मान्यताओं को मानते हैं इसलिए यह सभी सत्य से बहुत दूर है ।


धर्म का दूसरा सिद्धान्त न्याय


       महर्षि दयानन्द जी न्याय की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि जो सदाविचार कर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करें, अन्यायकारियों को हटावें, और न्यायकारिको को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सब का सुख चाहे उसे न्यायकारी मानता हूँ ।   


        वैदिक धर्म को छोड़कर अन्य मतावलम्बी निर्पक्ष न्याय, अथार्त जैसा का जैसा कहने में हिचकते हैं, इसलिए वह भी धर्म का अधूरापन कहा जायेगा जबकि कानून सत्य न्याय की दुहाई देता है।


धर्म का तीसरा सिद्धान्त दया


          महर्षि दयानन्द सरस्वती जी सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि दया और न्याय का नाम मात्र ही भेद है । क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से दण्ड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करना बन्द कर दुःखो को प्राप्त न हो वही दया कहाती है। यह दण्ड और न्याय व्यवस्था में लागू होता है किन्तु मानवीय सामाजिक, धार्मिक व्यवहारिक जगत में मनुष्य अपने सुकर्म व दुष्कर्म से ही दया का विश्लेषण करता है प्राणी मात्र पर दया करना, निरीह जीव-जन्तु की हत्या न करना, असहाय की सहायता करना, रोगी की सेवा करना, घृणा न करना, आपस में स्नेह से बर्तना और जैसा मैं अपने लिए चाहता हूँ वैसा ही दूसरो से व्यवहार करना सदैव सात्विक वृति का पालन करना, दया का लक्षण हो सकता है । सत्य धर्म वही है जहां प्राणी मात्र पर दया की जाती हो


धर्म का चतुर्थ सिद्धान्त अहिंसा


          मन वचन कर्म द्वारा किसी को हानि न पहुँचाना,और किसी के प्रति द्रोह का भाव न रखना, ही अहिंसा है। सत्य, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य और अद्रोह अहिंसा के सहायक है । अहिंसा साधना करने में स्वार्थ त्याग की आवश्यकता है जिस मत सम्प्रदाय में हिंसा होती है, वह धर्म का मत नही कहा जा सकता 


धर्म का पंचम सिद्धान्त सत्य ईश्वर भक्ति है


       महर्षि दयानन्द जी आर्य समाज के दूसरे नियम में सत्य ईश्वर की व्याख्या की है ईश्वर सच्चिादानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर-अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टि कर्ता है उसी की उपासना करनी योग्य है।


         मानव जगत में सम्पूर्ण विवाद, द्वेष, पाप, उग्रवाद, अलगाव, अज्ञानता, शोषणवृत्ति, हत्याएं, लूट-पाट, अन्धविश्वास आदि ईश्वर के स्वरूप को न जानने व न मानने के कारण हो रही है। अपने अपने मतानुसार अपनी मान्यता को ही सत्य मानना तथा ईश्वरीय व्यवस्था, सृष्टिक्रम विज्ञान की उपेक्षा से ही आज सत्य धर्म का पतन हो रहा है ।


         स्पष्ट है वैदिक धर्म के अतिरिक्त प्रत्येक मतों में उक्त किसी न किसी सिद्धांत की कमी है। विचार कीजिये।


धर्म निरपेक्ष कानून या विचार, क्या मानव को शान्ति दे रहे है ।
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम 
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि"
अर्थात हो विचार समान सबके चित्त मन सब एक हो ।
ज्ञान देता हूं, बराबर भोग्य पा सब नेक हों ।।


        महाभारत काल के बाद वैदिक संस्कृति व संस्कारों का युग समाप्त हो गया था और अवसरवादी वेद विहीन चतुर लोगों ने अपने मतों की दुकाने खड़ी कर दी और विवेकहीन व अदूरदर्शी राजनेताओं ने इन मतों को वोट बैंक के लिए हवा देकर धर्म निरपेक्ष कानून बना दिया जिसका परिणाम वर्तमान में दिख रहा है फलस्वरूप भारत का बड़े से बड़ा नागरिक भी जड़ चेतन भेद का न समझ कर जड़ को शीश झुकाता है । अन्यो की तो बात है क्या है ?


        मुझे लगता है कि जड़ पूजा धर्म निरपेक्ष नारा व सामजिक कुरीतियाँ इस सृष्टि को समाप्त होने प्रलय तक समाप्त नहीं होने वाले है ।


        वैदिक धर्म का आवाज नक्कार खाने मे तूती की आवाज हो रही है। फिर भी हमें आस नहीं छोड़नी चाहिए।


        और प्रत्येक चिन्तनशील मनीषी को ईश्वर वाणी वैदिक धर्म को सापेक्ष सार्वभौम-सर्व जानना व मनवाना है, सत्य धर्म है।


-पं. उम्मेदसिंह विशारद



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