वैदिक धर्म का उदात्त स्वरूप


वैदिक धर्म का उदात्त स्वरूप


भगवान् ने जब सारे संसार की सभी वस्तुओं का निर्माण कर लिया तब उनके उपयोग के लिये अपनी श्रेष्ठतम रचना मनुष्य का रचन किया। भगवान् की इस सृष्टि विविध पदार्थों का मनुष्य किस प्रकार सबके सुख के लिये ठीक-ठीक उपयोग करे, किस प्रकार पारिस्परिक व्यवहार और कर्तव्यों का सम्पादन करे और किस प्रकार अपने पूर्व कृत कर्मों के फल भोग के साथ निष्काम कम (लोक सग्रह की वृत्ति) द्वारा मोक्ष की प्राप्ति (ईश्वर प्राप्ति) करे- इस सबके प्रबोधन के लिये, बुद्धि रूपी नेत्र के लिये सूर्यवत् ज्ञान भण्डार वेदों को प्रभु ने सृष्टि के आरम्भ में ही ऋषि हृदयों में प्रकाशित कियामूलतः वेद वैदिक ज्ञान एक होते हुए भी ज्ञान कर्म, उपासना और विज्ञान विषयों को दृष्टि से चार हैं, जिनके नाम क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं।


यह चारों वेद स्वयं परम प्रभु की कल्याणी वाणी हैं। वेद की सद् शिक्षायें संसार के सब मनुष्यों के लिये और सब कालों के लिये हैंबीज रूप से संसार की सम्पूर्ण सत्य विद्यायें वेद में हैं। वेद सृष्टि के राजा भगवान् का संविधान (कानून) है। वेद की सद् शिक्षायें, वेद निदिष्ट कर्त्तव्य कर्मों का नाम ही 'वैदिक धर्म' है। यह सबका हैसंसार के सभी काल के सभी मानवों का एक ही धर्म है- वैदिक धर्म या मानव धर्म। 'धर्म' शब्द के अन्तर्गत सभी लाकिक और पार--लौकिक कर्त्तव्य आ जाते हैं। एक मनुष्य का _ अपने प्रति (अपने शरीर, मन बुद्धि और आत्मा को उन्नत करने के लिये) क्या कर्त्तव्य है, उसका अपने परिवार (माता, पिता भाई-बहिन, पत्नी, पुत्रादि), समाज, राष्ट्र निखिल विश्व और प्राणिमात्र के प्रति क्या कर्त्तव्य है- इन्हीं कर्त्तव्यों के जोड़ का नाम 'धर्म' (वैदिक धर्म) है। इसी धर्म के सम्यक् पालना के लिये 'वर्णाश्रम धर्म' और पंच महायज्ञों की योजना है।


 


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