वैदिक आदर्श
वैदिक आदर्श
सहृदयं सामनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्योऽअन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या॥१॥
हे गृहस्थो ! तुम सब समान हृदय रखो। एक दूसरे को ऐसे चाहो जैसे गाय सद्य:जात बछड़े को प्यार करती है।
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवाम्॥२॥
पुत्र पिता का आज्ञाकारी हो, माता में श्रद्धा रखे । मधुर-भाषिणी हो, पति शान्त और मधुर-व्यक्तित्व वाला हो।
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥३॥
भाई-भाई के साथ, बहिन-बहिन के साथ तथा भाई-बहि परस्पर द्वेष न करेंआपस में सदा ही सुखदायक, कल्याणकारी वाणी बोलें।
सपानी प्रपासह वोऽन्नभागः समाने योको सह वो युनज्मि।
सम्यञ्चोऽग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभितः ॥४॥
हे गृहस्थो ! तुम्हारे जलपान, खानपान एवं यान आदि समान हों। तुम्हें चक्र के आरों की भाँति पारस्परिक कल्याण, सद्भाव और उन्नति के धर्म रुप केन्द्र से जोड़ता हूँ।
सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोम्येकश्रुष्टीन्त्संवननेन सर्वान्
देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायंप्रातः सौमनसो वो अस्तु ॥५॥
हे गृहस्थो ! मैं तुम्हें धर्म कृत्य के सेवन के साथ एक दूसरे के उपकार में नियुक्त करता हूँ। सायं प्रातः प्रेम पूर्वक मिला करो(परस्पर अभिवादन किया करो .) तुम्हारे शुद्ध भाव बने रहे अथर्व0 काण्ड ३।
पारिवारिक प्रेम का यह वैदिक आदर्श जब व्यवहार में लाया जाता था तब हर घर अपने आप में 'स्वर्ग' थायहाँ के हर निवासी की संज्ञा 'देव' और देवी थी तथा सब मिलाकर यह महान् आर्यावर्त देश, स्वर्ग भूमि, देवभूमि या ऋषिभूमि कहलाता था। वैदिक स्वर्ग के इस आर्ष व्यवहार की कुछ झाँकियाँ आगे के पृष्ठों में दी जा रही हैं। इस वैदिक आदर्श का अनुकरण करके आज भी हम अपने परिवारों को 'स्वर्ग' बना सकते हैं।