उषा काल में जागना
उषा काल में जागना
रात्रि ! मातरुषसे नः परि देहि।
अपने देश के नागरिकों में आलस्य और प्रमाद बहुत है। काम को समय पर, पूरा और ठीक से न करना, जहां तक हो काम को टालते रहना, यह हमारा राष्ट्रीय दोष है अपना काम स्वयं न करके, यह आशा करना कि कोई दूसरा मेरा काम कर दे, यह हम लोगों की दुष्प्रवृत्ति है।
आलस्य और प्रमाद का सीधा संबंध निद्रा से है। जिस भाग्यवान् को गहरी नींद आती है उसमें उतना आलस्य नहीं मिलेगा जितना उनमें जिनको सोते में स्वप्न पाते हैं । स्वप्नों के कारण रात में शरीर और मन को संपूर्ण विश्राम नहीं मिल पाता है। परिणाम होता है शरीर में पालस्य वा तंद्रा।
समय से सोने और जागने से अच्छी निद्रा में काफ़ी सहायता मिलती है। ठीक समय पर सोना जितना आवश्यक है उससे अधिक प्रावश्यक है ठीक समय पर जागना । सद्योजात शिशु प्रायः उषाकाल में जग जाया करते हैं । पर अपनी निद्रा में विघ्न पड़ने के कारण, माताए थपकियां देकर उन्हें पुनः सुलाने का यत्न किया करती हैं। फिर धीरे धीरे शिशु को देर तक सोने की आदत पड़ जाती है। आगे चलकर उषाकाल में उठना उसे कठिन लगने लगता है।
ऊपर की वेदसूक्ति में रात्रि माता से विनय की गई है कि वह हमारा परि-दान उषा को कर दे, अर्थात्, हम उषाकाल में उठ जाया करें। रात्रि माता है । वह हमारे शरीर-प्राण-मन को ताज़गी और पुष्टि देती है । वह हमें उषा माता को सौंप दे। उषाकाल में उठकर हम अपनी नित नई उपा मां की आभा के दर्शन कर प्रफुल्लित हुआ करें।
पर यह तभी सम्भव है जब माताएं अपने परिवारों में छोटे-बड़े, सबको 'उषाकाल में उठने के अभ्यासी बनाएं। मनुष्यों में जो भी गुण अथ वा दोष होतेहैं वे प्रायः माताओं की असावधानी अथ वा लापरवाही से उनमें आते हैं। माता तर की निर्मात्री है । वह उसे उषाकाल में जागने वाला बनाए तो सारी मानवता स्वस्थ, सुन्दर और प्रसन्न बन जाए।